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________________ उच्चकोटि के विद्वान् • श्री चेतनलाल जैन, डालमियानगर १ / संस्मरण : आदराञ्जलि : २९ ई० सन् १९३०में करीब १६ वर्षकी आयुमें संस्कृत अध्ययन हेतु मैं स्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालयमें पहुँचा । सब कुछ अनजान एवं अपरिचित होनेसे मन बड़ा विकल था । घरसे चल तो दिया पर तरहतरहके विकल्प मनमें आ रहे थे । परिवारजनोंने इतनी दूर जानेसे बहुत रोका, पर संस्कृत पढ़नेकी धुनमें किसी की नहीं सुनी और अकेला ही बनारस विद्यालयमें पहुँच गया, संस्कृत शिक्षा प्राप्त करनेकी उत्कट अभिलाषाका कारण था जैन आगमका ज्ञान प्राप्त करना जो कि संस्कृत भाषाके जाने बिना सम्भव नहीं था, ऐसी मेरी मान्यता रही । विद्यालय पहुँचने पर वहाँके अध्यापकों, अधिकारियों एवं छात्रोंका व्यवहार देखकर सब विकल्प शान्त हो गये । जहाँ तक याद है उस समय विद्यालय में श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी धर्माध्यापक, पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाध्यापक, पं० मुकुन्दजी शास्त्री साहित्याध्यापक एवं पं० सदाशिवजी व्याकरणाध्यापक रहे । प्रथमा में प्रवेश मिला और आदरणीय गुरुजनोंसे अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। सभी गुरुजनोंका व्यवहार छात्रोंके प्रति सौहार्दपूर्ण था अतः शीघ्र ही वहाँके जीवनमें रच-पच गया, जो कि मेरे जीवनका स्वर्णयुग कहा जा सकता है । अपने ६ वर्ष ( १९३० से १९३६ ) के विद्यालय निवासमें अध्ययन तो अधिक नहीं केवल न्याय प्रथमा, धर्म विशारद एवं गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज काशीकी साहित्यमध्यमा तक ही शिक्षा अर्जित कर सका। परग्तु गुरुजनोंकी कृपासे वहाँ रहकर जो संस्कार अर्जित किए वे जीवन के कंटाकीर्ण मार्गमें आज भी प्रकाशस्तम्भ के समान मार्गदर्शन कर रहे हैं । प्रत्येक व्यक्तिमें अपनी कुछ विशेषताएँ होती हैं जो उसे अन्योंसे भिन्न करती हैं । आदरणीय पं० महेन्द्रकुमारजी में सरलता, निरभिमानता एवं जीवन्तता थी । वे छात्रोंके साथ निःसंकोच खेल-कूद, तैराकी इत्यादिमें हमेशा भाग लेते रहे । उन्होंने कभी छात्रोंको ऐसा आभास नहीं होने दिया कि वे उनके गुरु हैं । वे अपने विषयके उच्चकोटिके विद्वान् थे एवं अध्यापन, लेखन एवं सम्पादनादि कार्यों में भी उनकी अबाधगति थी । असमयमें ही उनके निधन से जैन समाजको जो क्षति हुई वह अपूरणीय है । वे हमेशा मेरे श्रद्धास्पद रहे । उनके चरणोंमें मैं अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ । बीसवीं शताब्दी के प्रकाण्ड जैन दार्शनिक • डॉ० लालचन्द्र जैन, वैशाली डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यका जैनदर्शन के क्षेत्र में वही स्थान हैं जो भट्ट अकलंकदेव का है । डॉ० साहबने जैन न्याय दर्शनके गम्भीर शास्त्रोंका गहन अध्ययन कर उनकी सरल-सुबोध और सर्वगम्य भाषामें विवेचन कर सभीका ध्यान सम्बन्धित ग्रन्थोंकी ओर आकर्षित किया । न्यायविनिश्चयविवरण और सिद्धिविनिश्चयविवरणकी प्रस्तावनाके अध्ययनसे सम्पूर्ण भारतीय दर्शनका ज्ञान हो जाता है । उक्त ग्रंथोंकी प्रस्तावना उपन्यासकी तरह सरस, सरल, सुबोध है । 'जैनदर्शन' नामक ग्रन्थ लिख कर उन्होंने जैनदर्शन जगत् का मस्तक ऊँचा किया है । अतः उनके प्रति मैं अपनी श्रद्धांजलि प्रेषित कर रहा हूँ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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