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________________ ५/ जैन न्यायविद्याका विकास : ९ के बिना सिद्ध नहीं होता तथापि उनमें अन्योन्याश्रय दोष नहीं है क्योंकि पुरुषातिशय ( केवलज्ञान) को अर्थवश (प्रतीतिवश ) माना जाता है। दोनोंमें बीजांकुरके प्रवाहकी तरह अनादि प्रवाह माना गया है । अतएव अर्हत्की सर्वज्ञता और उनका उपदेश ( स्याद्वाद ) दोनों ही युक्तिसिद्ध हैं।" पाठक, यहाँ देखें कि समन्तभद्रने जो अनुमानसे आप्तमीमांसा कारिका ५, ६, ७ में सर्वज्ञताकी सिद्धि की है और जिसका समालोचन कुमारिलने उक्त प्रकारसे किया है, अकलंकदेवने उसीका यहाँ विशदताके साथ सहेतुक उत्तर दिया है । तथा सर्वज्ञता ( केवलज्ञान ) और आगम ( स्याद्वाद ) दोनोंमें बीजांकुरसंततिकी तरह अनादिप्रवाह बतलाया है। बौद्ध तार्किक धर्मकीर्तिने स्याद्वादपर निम्न प्रकारसे प्रहार किया है एतेनैव यत्किचिदयुक्तमश्लीलमाकुलम् । प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसम्भवात् ।। "धर्मकीर्ति कहते हैं कि कपिलमतके खण्डनसे ही जैनदर्शनका, जो अयुक्त, अश्लील और आकुलरूप 'किंचित्' ( स्यात् ) का प्रलाप है वह खण्डित हो जाता है, क्योंकि उनका कथन भी एकान्तरूप सम्भव है।" यहाँ धर्मकीर्तिने समन्तभद्रके "सर्वथा ( एकांत) के त्यागपूर्वक किंचित्के विधानरूप स्याद्वाद (आ० मी० १०४)" का खण्डन किया है। इस खण्डनमें “तदप्येकान्तसम्भवात्" पदका प्रयोग करके उन्होंने समन्तभद्र द्वारा प्रतिपादित स्याद्वाद लक्षणकी मीमांसा की भी है। इसका भी उत्तर अकलंकदेवने मय व्याजके निम्न प्रकार दिया है ज्ञात्वा विज्ञप्तिमात्रं परमपि च बहिर्भासिभावप्रवादम्, चक्रे लोकानुरोधात् पुनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे । न ज्ञाता तस्य तस्मिन् न च फलमपरं ज्ञायतेनापि किंचित, इत्यश्लीलं प्रमत्तः प्रलपति जड़धीराकुलः व्याकुलाप्तः ॥ -न्यायविनिश्चय का० १७० 'कोई बौद्ध विज्ञप्तिमात्र तत्त्वको मानते हैं, कोई बाह्यपदार्थके सद्भावको स्वीकार करते हैं, कोई दोनोंको लोकानुसार अंगीकार करते हैं और कोई कहते है कि न बाह्यतत्त्व है, न आभ्यंतर तत्त्व, तथा न उनको जाननेवाला है। और न कोई उसका फल है। ऐसा परस्परविरुद्ध वे प्रलाप करते हैं। ऐसे लोगोंको अश्लील, उन्मत्त, जड़बुद्धि और आकुल कहा जाना चाहिए।' धर्मकीर्ति केवल स्याद्वादपर आक्षेप करके ही मौन नहीं रहे, किन्तु 'स्याद्वाद'के वाच्य 'अनेकांत'के खण्डनपर भी उन्होंने कलम चलाई है। यथा सर्वस्योभयरूपत्वे तद्विशेषनिराकृतेः। चोदितो दधि खादेति किमुष्टं नाभिधावति ।। -प्र० वा० १-१८३ 'यदि सब पदार्थ उभयरूप ( अनेकान्तात्मक ) है तो उनमें कुछ भेद न होने के कारण किसीको 'दही खा' कहनेपर वह ऊँटको खानेके लिए क्यों नहीं दौड़ता? यहाँ धर्मकीर्तिने जिस उपहास एवं व्यंग्यके साथ समन्तभद्र द्वारा प्रतिपादित स्याद्वादके वाच्य अनेकान्तकी खिल्ली उड़ाई है, अकलंकदेवने भी उसी उपहासके साथ धर्मकीर्तिको उत्तर दिया है । यथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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