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________________ ८:डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ शास्त्रार्थका अंग मानना इस कालकी देन बन गई थी। क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, शन्यवाद, शब्दाद्वैत, ब्रह्माद्वैत, विज्ञानाद्वैत आदि वादोंका पुरजोर समर्थन इस कालमें धड़ल्ले से किया गया और कट्टरतासे विपक्षका निरास किया गया। इस दार्शनिक एवं तार्किक संघर्षके कालमें सूक्ष्मदृष्टि अकलंकका प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने इस समग्र स्थितिका अध्ययन किया तथा सभी दर्शनोंका गहरा एवं सूक्ष्म चिन्तन किया, उन्हें प्रच्छन्नवेशमें तत्कालीन शिक्षाकेन्द्रों, यथा काञ्ची, नालन्दा आदि विश्वविद्यालयोंमें अध्ययन करना पड़ा। समन्तभद्रने जो स्याद्वाद, अनेकांतवाद और सप्तभंगीका प्रतिपादन किया था, उसे ठीक तरह से न समझनेके कारण दिग्नाग, धर्मकीर्ति आदि बौद्ध विद्वानों तथा उद्योतकर, कुमारिल आदि वैदिक मनीषियोंने खण्डन करनेका प्रयत्न किया। अकलंकने उसका उत्तर देनेके लिए दो अपूर्व कार्य किए । एक तो स्याद्वाद और अनेकांतपर किये गये आक्षेपोंका सबल जवाब दिया। दूसरा कार्य जैनदर्शन और जैनन्यायके चार महत्त्वपूर्ण ग्रन्योंका प्रणयन किया, जिनमें उन्होंने न केवल अनेकांत, स्याद्वाद और सप्तभंगीपर किये गये आक्षेपोंका उत्तर दिया, अपितु उन सभी एकान्तपक्षोंमें दूषण भी प्रदर्शित किये । उनके वे दोनों कार्य हम यहाँ संक्षेपमें देनेका प्रयत्न करेंगे। दूषणोद्धार आप्तमीमांसामें समन्तभद्रने अर्हन्तकी सर्वज्ञता और उनके उपदेश (स्याद्वाद ) की सहेतुक सिद्धि की है। दोनों में साक्षात् (प्रत्यक्ष ) और असाक्षात् (परोक्ष ) का भेद बतलाते हुए दोनोंको सर्वतत्त्वप्रकाशक कहा है । उनमें इतना ही अंतर है कि अर्हन्त वक्ता हैं और स्याद्वाद उनका वचन है। यदि वक्ता प्रमाण है तो उसका वचन भी प्रमाण माना जाता है। आप्तमीमांसामें अर्हन्तको युक्तिपुरस्सर आप्त सिद्ध किया गया है और उनका उपदेश स्याद्वाद भी प्रमाण माना गया है। मीमांसक कुमारिलको यह सह्य नहीं हुआ, क्योंकि वे किसी पुरुषको सर्वज्ञ स्वीकार नहीं करते, तथा वेदको अपौरुषेय मानते हैं । अतएव कुमारिल 'अहंत की सर्वज्ञतापर आपत्ति करते हुए कहते हैं एवं यैः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः। सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् ।। नर्ते तदागमाल्सिद्धयेन्न च तेनागमो विना। यहां कहा गया है कि जो सूक्ष्म, अतीत आदि विषयोंका अतीन्द्रिय केवलज्ञान पुरुषके माना जाता है वह आगमके बिना सिद्ध नहीं होता और आगम उसके बिना सम्भव नहीं। इस प्रकार दोनोंमें अन्योन्याश्रय दोष होनेसे न अर्हत् सर्वज्ञ हो सकता है और न उनका उपदेश ( स्याद्वाद ) ही सिद्ध हो सकता है । यह अर्हत्की सर्वज्ञता और उनके स्याद्वाद रूप उपदेशपर कुमारिलका एक साथ आक्षेप है। अकलंकने इस आक्षेपका उत्तर सबलताके साथ इस प्रकार दिया है एवं यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम् । नर्ते तदागमात् सिद्धयेन्न च तेन विनाऽऽगमः ।। सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मतः । प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥ "यह सच है कि अनुमान द्वारा सिद्ध केवलज्ञान ( सर्वज्ञता ) आगमके बिना और आगम केवलज्ञान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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