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________________ ३९४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ वर्ण व्यवस्था व्यवहार के लिए है आजीविकाके उपायों का वर्गीकरण वर्णव्यवस्था का मुख्य प्रयोजन है। यह सामाजिक व्यवस्था का तत्कालीन प्रयोग है । इसके आधार पर धर्माधिकारमें भेद नहीं किया जा सकता। कोई भी मनुष्य धर्मके किसी भी पद को अपनी साधनासे पा सकता है। उसके पाने में उसका शरीर बाधक नहीं होगा। उन्होंने जन्म-सिद्ध वर्ण व्यवस्थाके विरुद्ध अपने संघमें चांडाल, माली, कहार, नाई आदि जन्मसे कहे जाने वाले शद्रों को भी शामिल किया। और उनके लिए धर्म का द्वार ही नहीं खोला, बल्कि अपने संघमें उन्हें वही दरजा दिया, जो किसी उच्च वर्णवाले ब्राह्मण आदि को मिल सकता था । अहिंसाके व्रतियोंमें सबसे अच्छा उदाहरण यमपाल चांडाल का लिया जा सकता है । मेतार्य मुनि और हरिकेशी साधु भी चांडाल ही थे । तात्पर्य यह कि-तीर्थंकर महावीर का अहिंसा धर्म किसी वर्ण विशेषके लिए ही नहीं था, बल्कि उसकी शीतल छायामें सभी समान रूपसे शान्ति लाभ करते थे। जिन असंख्य शद्रों को धर्म का अक्षर सुनने तक का अधिकार नहीं था, जो मनुष्य की शकलमें पशुओंसे भी बदतर थे, उन्हें धर्ममें समान पद और समान अधिकार का मिल जाना सचमुच उस युग की सबसे बड़ी क्रान्ति थी। इसी समता तीर्थ या सर्वोदय तीर्थके प्रवर्तक होनेके कारण महावीर तीर्थकर थे । जगत् स्वयं सिद्ध है जगतके बनाने वाले ईश्वर को मानकर और वर्णव्यवस्था को ईश्वर की देन कहकर जो एकाधिपत्य की परम्परा प्रचलित थी, उसे भी तीर्थकरने स्वीकार नहीं किया। उनने बताया कि जगतकी रचना भौतिक परमाणओंके संयोग-वियोगोंसे स्वयं हो रही है । उसमें किसी सर्व-नियन्ता का कोई स्थान या हाथ नहीं है। कहीं पुरुषके प्रयत्न उसे भले ही नियंत्रित कर लें, पर यह सब समय और सब स्थानोंके लिए नहीं हैं। विश्वके रंग-मंच पर असंख्य परिवर्तन आपसी संयोग-वियोगोंसे अपने आप होते रहते हैं। ऑक्सीजन और हॉइड्रोजन को किसी प्रयोगशालामें विज्ञान वेत्ता भी मिलाता है और आकाशमें वे अपने आप ही मिलकर जल बन जाते हैं। मनुष्य स्वयं अपने पुण्य और पाप का फल पाता है । अपने कर्म संस्कारों के अनुसार अच्छी और बरी अवस्था को प्राप्त होता है । इसके लिए लेखा-जोखा रखने वाले किसी महाप्रभु की न तो आवश्यकता है और न उसकी स्थिति विज्ञान-संमत कार्यकारण की श्रृंखलामें ही फिट-सुमिल बैठती है। पशुयज्ञ आदि धर्म नहीं ईश्वरके नाम पर यह भी कहा जाता था कि स्वयंभू ईश्वरने यज्ञके लिए पशुओं को सुष्टि की है। अतः यज्ञमें पशुओं का वध करना हिंसा या अधर्म नहीं है। अहिंसाके सर्वोदयी पुरस्कर्ता तीर्थंकर महावीरने कहा कि ईश्वरने किसी को नहीं बनाया। जिस प्रकार हम स्वयं सिद्ध हैं, उसी तरह गाय आदि पश भी। जिस प्रकार हमें प्राण प्यारे हैं, हम सुख चाहते हैं, इसी तरह वे पशु भी। कहा है "जह मम न पियं दुक्खं, जाणिहि एमेव सव्वजीवाणं ।" जैसे हमें दुःख प्रिय नहीं लगता, वैसे ही सब जीवों को जानो। "सव्वे जीवा पियाउआ सुहसाया दुक्ख-पडिकूला।" सभी को अपने प्राण प्यारे हैं, सब सुख चाहते हैं, दुःखसे सब डरते हैं। इसलिए यज्ञमें पशओं का होमा जाना कदापि धर्म नहीं हो सकता। तीर्थकरके द्वारा किये गए इस पशुवधके विरोध का जनताने स्वागत किया। इसी तरह नदियोंमें स्नान करना, पंचाग्नि तपना, पर्वतसे गिरना, काशी करवट लेना, अग्निपात आदि क्रियाकाण्डोंमें धर्म मानने को मूढ़ता बताकर कहा कि धर्म तो आत्मशुद्धि का मार्ग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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