SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 576
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थंकर महावीर जन्म और विहार क्षेत्र तीर्थंकर महावीरने बिहार की पुण्यभूमि वैशाली में आजसे २५५६ वर्ष पूर्व जन्म लिया था। तीस वर्ष की भरी जवानी में राज्य वैभव त्याग कर वे आत्मसाधनामें लीन हुए थे, व्यक्ति की मुक्ति और समाज में शान्ति का मार्ग खोजने के लिए । १२ वर्ष की दीर्घ तपस्या के बाद उन्हें कैवल्य प्राप्त हुआ और वे उसके बाद ३० वर्ष तक बिहार, उड़ीसा, बंगाल और उत्तरप्रदेश में सतत पाद विहार कर उपदेश देते रहे। उनके तथा शास्ता बुद्धके बिहार के कारण ही प्रान्त का नाम बिहार पड़ा। वीर भूमि (बीर भूम) और वर्धमान ( वदवान ) जिले तीर्थंकर महावीरके बिहार (विचरण ) को साक्षी दे रहे हैं। वे तीर्थंकर थे तीर्थंकर वह व्यक्ति बन पाता है, जो जन्म-जन्मान्तरसे यह उत्कट भावना रखता है कि मुझे जो शक्ति और सामर्थ्य प्राप्त हो वह जगत्‌के कल्याण व उद्धारके लिए अर्पित है। संसारके प्राणी अज्ञान अन्धकार और तृष्णाके जाल में पड़े हुए हैं कैसे वे प्रकाश पाएँ और तृष्णा के जालको भेद कर सन्मार्ग में लग सकें, इसी पवित्र भावनासे व्यक्ति तीर्थंकर बनता है; मोक्षमार्ग का नेता होता है । वह अपने का विश्व कल्याण के लिए उपदेश देता है और अपने को खपा देता है जगत् के उद्धार अर्थात् धर्म मार्ग का कर्ता होता है । वह किसी शास्त्रमें या ग्रन्थ में लिखे हुए धर्म मार्ग का प्रचारक नहीं होता, किन्तु अपने जीवनमें जिस धर्म का साक्षात्कार करता है और जिस मार्गसे अपनी आत्मा की मुक्ति का द्वार पाता है, उसी धर्म का वह उपदेश देता है। जिस मार्ग से वह तरता है, वही मार्ग दूसरों को बताता है । वह तरण तारण होता है । उनके तीर्थ के मुख्य आधार ये हैं । पुरुष स्वयं प्रमाण है धर्मके स्वरूपके निश्चय करने में परम्परासे आए हुए वेद या शास्त्र एकमात्र प्रमाण नहीं हो सकते; किन्तु निर्मल और तत्वज्ञानी आत्मा स्वयं धर्म का साक्षात्कार कर सकता है। वह स्वयं अपने धर्म मार्ग का निर्णय कर सकता है। इस तरह वेद या शास्त्र के नाम पर एक वर्ग की जो धर्म का अधिकारी बना हुआ था, वह धर्म की जो व्याख्या करता था, वही सबको मान्य करनी पड़ती थी, बुद्धि की इस गुलामी को तीर्थंकरने उतार फेंका और कहा कि व्यक्ति अपनी साधनासे स्वयं वीतरागी बन सकता है और वह केवल ज्ञान- पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जिसके बल पर वह धर्म का साक्षात्कार कर सकता है और धर्म मार्ग का निर्णय भी कर सकता है । कोई भी वाक्य या शब्द, चाहे वे वेदमें लिखे हों या अन्य किसी शास्त्रमें, स्वतः (अपने आपमें ) प्रमाण नहीं हो सकते शब्द या वाक्य की प्रमाणता वक्ता (बोलने वाले) के प्रामाण्य ( प्रामाणिकता ) पर निर्भर होती है। जिन शब्दों का कहने वाला वक्ता वीतरागी और तत्त्वज्ञ है, वे हा शब्द प्रमाण होते हैं; अर्थात् शब्दों में प्रमाणता स्वयं की नहीं है, किन्तु बोलने वाले व्यक्ति की है । अनुभूत धर्म मार्ग तीर्थंकर स्वयं तीर्थं एक बात विशेष रूपसे ध्यान देने की है कि श्रमण संस्कृतिके महान् ज्योतिर्धर तीर्थंकर महावीर और शास्ता बुद्ध दोनों क्षत्रिय थे। उस समय धर्मके एक मात्र अधिकारी ब्राह्मण थे । किन्तु महावीर और बुद्धने स्वयं साधना करके धर्मके ऊपर बंद और ब्राह्मण वर्ग के ही एक मात्र अधिकार की परम्परा को तोड़ कर स्वयं धर्म का उपदेश दिया । यह एक महान् विचारक्रान्ति थी । ये क्षत्रिय कुमार धर्ममें स्वयं प्रमाण बन कर धर्म तीर्थंके कर्ता हुए। इतना हो नहीं, किन्तु इन्होंने धर्म का द्वार मानवमात्र के लिए खोल दिया था। इन्होंने रूड़ वर्ण-व्यवस्था किजेमे जकड़ी हुई मानवता को त्राण दिया और स्पष्ट कहा कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org/
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy