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________________ महावीर वाणी तीर्थंकर महावीरने बिहारकी पुण्यभूमि वैशालीमें आजसे २५५७ वर्ष पूर्व जन्म लिया था। तीस वर्षकी भरी जवानी में राजवैभवको लात मार वे आत्मसाधनामें लीन हुए थे, व्यक्तिकी मुक्ति और समाजमें शान्तिका मार्ग खोजने के लिए । बारह वर्षकी सुदीर्घ ( लम्बी ) तपस्या के बाद उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । उन्होंने धर्मका साक्षात्कार किया। उसके बाद लगातार ३० वर्ष तक वे बिहार, उड़ीसा, बंगाल और उत्तरप्रदेश आदिमें सतत पाद विहारकर धर्मोपदेश देकर सर्वोदयतीर्थंका प्रवर्तन करते रहे। वीरभूमि और वर्धमान जिले तीर्थंकर महावीरकी यशोगाथाका गान अपने नामों द्वारा आज भी कर रहे हैं । वे तीर्थंकर थे । तीर्थंकर जन्म-जन्मान्तरसे यह संकल्प और भावना रखता है कि मुझे जो शक्ति, सामर्थ्य और विभूति प्राप्त हो उसका एक-एक कण जगत्के कल्याण व उद्धारके लिए अर्पित है । अज्ञानके अन्धकार और तृष्णा जालमें पड़े हुए प्राणी कैसे प्रकाश पाएँ और कैसे तृष्णाके जालको भेदकर सन्मार्ग में लगें, यह उनके जीवनका प्रमुख लक्ष्य होता है। वह उस अनुभूत धर्म या तीर्थका उपदेश देता है जिसपर चलकर उसने स्वयं जीवनका चरम लक्ष्य पाया होता है और वह खपा देता है अपनेको प्राणिमात्र के उद्धार और विश्वके कल्याण में । उन्होंने अपने सर्वोदय तीर्थंका उपदेश उस समयकी जनताकी बोली अर्धमागधी में दिया था । अर्धमागधी वह भाषा थी जिसमें आधे शब्द मगध देशकी भाषाके थे जो महावीरकी मातृभाषा थी और आधे शब्द विदेह अंग, वंग, कलिंग आदि अठारह महाजनपदोंकी महाभाषाओं और ७०० लघु भाषाओंके थे । यानी उनकी भाषा में सभी बोलियोंके शब्द थे । इसका कारण था कि उन्हें उन पतित, शोषित, दलित और अभिद्रावित शूद्रों तकको सद्धर्मके अमृतका पान कराना था जिनने सदियोंसे धर्मका शब्द नहीं सुना था। जो धर्म तो क्या मनुष्यता से वंचित थे। जिनकी दशा पशुओंसे भी बदतर थी । जो धर्म वर्ग विशेष में कैद था और वर्गविशेषकी प्रभुताका मात्र साधन बना हुआ था उस धर्मका द्वार जन-जनके कल्याण के लिए उन्हीं की भाषा में उपदेश देकर इन तीर्थंकरने खोला । आज प्रान्तीय भाषाओंके नामपर झगड़नेवाले हमलोगों को महावीर और बुद्धकी उस लोकभाषा की दृष्टिकी ओर ध्यान देनेकी आवश्यकता है कि भाषा एक वाहन है विचारोंको ढोका । वह उतना समृद्ध होना चाहिए जिसका उपयोग बहुजन कर सकें । हिन्दी और हिन्दुस्तानी तथा प्रान्तीय भाषाओं के विवादको हमें इसी संग्राहक दृष्टिसे हल कर लेना चाहिए । धम्मो मंगलमुक्किट्ठ अहिंसा संजमो तवो । देवा वितं णमंसंति जस्स धम्मे सया मणो ॥ धर्म उत्कृष्ट मंगल है | अहिंसा, संयम और तप अर्थात् अपनी इच्छाओंको निरोध करना धर्मका मूल रूप है | जिसके जीवन और मनमें धर्म आ गया उसे देव श्रेष्ठजन भी नमस्कार करते हैं । अहिंसाकी व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया कि 'जे य अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे यह आयमिस्सा अरिहंता भगवंता सव्वे ते एवमाइक्वंति एवं भासत्ति एवं पन्नवेन्ति एवं परूवेन्ति सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सब्वे सत्ता न तव्वा न अज्जातव्वा न परिधेतव्वा न परियावेयव्वा न उद्द्वेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे नितिए सासए ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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