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________________ ३६६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ ३ - कोई भी द्रव्य किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपसे परिणमन नहीं कर सकता । एक वेतन न तो अचेतन हो सकता है और न चेतनान्तर ही बन सकता है। वह चेतन वही चेतन रहेगा । ४- जिस प्रकार दो या अनेक पुद्गल परमाणु मिलकर एक संयुक्त समान स्कन्ध रूप पर्याय उत्पन्न कर लेते हैं, उस तरह दो चेतन या अन्य धर्मादिद्रव्य मिलकर संयुक्तपर्याय उत्पन्न नहीं कर सकते । ५ - प्रत्येक द्रव्यकी अपनी मूल द्रव्य शक्तियाँ और योग्यतायें समान रूपसे निश्चित हैं । उनमें हेरफेर नहीं हो सकता । कोई नई शक्ति कारणांतर से ऐसी नहीं आ सकती जिसका अस्तित्व उस द्रव्य में न हो । इसी तरह कोई द्रव्यशक्ति सर्वथा विनष्ट नहीं हो सकती । ६ - द्रव्यशक्तियों के समान होनेपर भी अमुक चेतन या अचेतनमें स्थूल पर्याय सम्बन्धी अमुक योग्यतायें भी नियत हैं । उनमें जिसकी सामग्री मिल जाती है उसका विकास हो जाता है । जैसे प्रत्येक पुद्गलाणु में पुद्गलकी सभी द्रव्य योग्यतायें रहनेपर भी मिट्टी के पुद्गल ही साक्षात् घड़ा बन सकते हैं, कङ्कड़ोंके पुद्गल नहीं । तंतुके पुद्गल ही साक्षात् कपड़ा बन सकते हैं मिट्टीके पुद्गल नहीं, यद्यपि घड़ा और कपड़ा दोनों ही पुद्गलकी पर्यायें हैं । हाँ, कालान्तर में बदलते हुए मिट्टी के पुद्गल भी कपड़ा बन सकते हैं और तन्तुके पुद्गल भी घड़ा। तात्पर्य यह कि संसारी जीव और पुद्गलोंकी अपनी-अपनी द्रव्य शक्तियाँ समान होनेपर भी अमुक स्थूल पर्याय में अमुक शक्तियाँ हो साक्षात् विकसित 'सकती हैं, शेष शक्तियाँ बाह्य सामग्री मिलनेपर भी तत्काल विकसित नहीं हो सकतीं । ७- यह नियत है कि उस द्रव्यकी उस स्थूल पर्याय में जितनी पर्याय योग्यतायें हैं उनमेंसे ही जिसकी अनुकूल सामग्री मिलती है उसका ही विकास होता है शेष तत्पर्याययोग्यतायें द्रव्यकी मूल योग्यताओंकी तरह सद्भावमें ही बनी रहती हैं । ८ - यह भी नियत है कि अगले क्षणमें जिस प्रकार सामग्री उपस्थित होगी, द्रव्यका परिणमन उससे प्रभावित होगा । इसी तरह सामग्रीके अन्तर्गत जो भी द्रव्य हैं उनके परिणमन भी इस द्रव्यसे प्रभावित होंगे । जैसे कि ऑक्सीजनके परमाणुको यदि हाइड्रोजनका निमित्त मिल जाता है तो दोनोंका जल रूपसे परिणमन हो जायगा अन्यथा जैसी सामग्री मिलेगी उस रूपसे वे परिणमन हो जायेंगे । जैन-दर्शनने 'वस्तु क्या है, यह जो पर्यायोंका उत्पाद और व्यय है उसमें निमित्त उपादानकी क्या स्थिति है' इत्यादि समस्त कार्यकारणभाव, उनके जाननेकी क्या पद्धति हो सकती है ? इस समस्त ज्ञापकतत्वका पूरा-पूरा निरूपण किया है। इस कारण तत्त्व और ज्ञापक तत्त्वमें भावनाका स्थान नहीं है । इसमें लो कठोर परीक्षा और वस्तु स्थितिके विश्लेषणकी पद्धतिका प्रामुख्य है । अतः जहाँ वस्तु तत्त्वका निरूपण हो वहाँ दर्शनकी प्रक्रियासे उसका विवेचन कीजिये और उत्पन्न तथा ज्ञापित वस्तुमें किस प्रकारकी भावना या चितनसे हम रागद्वेषसे वीतरागताकी ओर जा सकते, इस अध्यात्म भावनाको समयसारसे परखिए । भावना और दर्शनका अपना-अपना निश्चित क्षेत्र है उसे एक दूसरेसे न मिलाइए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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