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________________ १/ संस्मरण : आदराञ्जलि : १७ बहुमुखी प्रतिभाके धनी • समाजरत्न साहु अशोककुमार जैन, दिल्ली अध्यक्ष भारतवर्षीय तीर्थ क्षेत्र कमेटी ___डॉ. पं० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्यकी पुण्य स्मृतिमें ग्रन्थ प्रकाशित करनेके लिए पूज्य उपाध्याय श्री ज्ञानसागरजीकी प्रेरणाको कार्य रूप देने पर मैं आपको बधाई देता है। अपने विद्वानोंको समादृत करना भारतीय संस्कृतिकी परम्परा है। वास्तव में हम इस रूपमें अपने उन गुरुजनोंके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं जो अपने गहन ज्ञान, चिन्तन, मनन और साहित्य-सर्जनसे मानव-समुदायका कल्याण करते है। आदरणीय डॉ० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य भी ऐसे हो एक सुप्रतिष्ठित मनीषी विद्वान थे जिन्होंने अपने यशस्वी कृतित्व से धर्म, दर्शन और समाजकी भरपूर सेवा की। उनके इस उपकारको समाज कभी नहीं भुला पाएगी। आपने लिखा है कि आदरणीय पण्डितजीके बारेमें मैं भी कुछ लिखू । लेकिन यह सब कुछ बहुत सहज नहीं । जो आत्मीय-जन हो और श्रद्धाका पात्र हो उसके प्रति भाव शब्दोंसे कम भक्तिसे अधिक व्यक्त होते हैं । पण्डितजीका व्यक्तित्व मेरे लिए ऐसा ही था। मैं शायद तब १०-११ वर्षका ही था जब उनके सम्पर्क में आया और उनके उदार विचारों तथा गूढ़ विषयोंको भी सरल, सुबोध भाषामें समझानेकी तर्क संगत शैलीका कायल हो गया । मेरे बाल-मन पर उनको जो पहली छवि अंकित हुई उसमें आश्चर्य मिश्रित श्रद्धा-भक्तिका पुट था। वे अन्य विद्वानों से कुछ हट कर थे। मैं कलकत्ता कालेजमें पढ़ने चला गया। विज्ञानको विषय चना । हर पर्यषणमें बाबूजी विद्वानोंको धर्म-चर्चाके लिए घर आमन्त्रित करते थे। मुझे भी कई वर्ष तक पण्डितजीको सुननेका सौभाग्य मिला। जैनधर्मके विषय में उनका दष्टिकोण अन्य पण्डितोंको अपेक्षा उदारवादी तथा विषयोंकी विवेचना-शैली हृदयग्राही थी। मैं विज्ञानका छात्र था। धर्म में तो आस्था प्रधान होती है पर विज्ञान तो हर बातको तर्ककी कसौटी पर कसता है। मेरे मन में भी अनेक शंकाएँ थीं-विज्ञान पर आधारित । पण्डितजीने न केवल उनका समाधान किया । अपितु मेरे जिज्ञासु-मनमें यह बात बैठा दी कि जैनधर्म अत्यन्त वैज्ञानिक धर्म है । मैं चकित था कि आइन्स्टीनने जिस "काल" को सबसे पहले अलग “आयाम" के रूपमें माना उसका उल्लेख हमारे जैनाचार्य हजार वर्ष पहले कर चुके थे और उसे उन्होंने पृथक "द्रव्य" के रूपमें माना था । आचार्य कह चुके थे कि किसी भी कार्यकी सिद्धि में काल भी आवश्यक निमित्त कारण है। यही बात "धर्म" और "अधर्म" के बारेमें थी। न्यूटनने इनके बारे में जो बातें प्रतिपादित की वे सब जैन-सिद्धान्तोंमें पहलेसे ही परिभाषित हैं । ये सारी बातें मझे पं० महेन्द्रकुमारजीके माध्यमसे समझनेका मौका मिला जिससे एक विज्ञानका विद्यार्थी होने के नाते जैनधर्ममें मेरी आस्था बढ़ी। मेरी कई शंकाएँ पुरुषार्थ और भाग्य जैसे विषयोंसे सम्बन्ध रखती थीं। उन्होंने जैनदर्शनकी अनेकान्त शैलीसे तथ्योंको समझनेकी बात मुझे समझायी कि किस प्रकार परस्पर विरोधी दिखनेवाली बातोंमें भी समन्वय हो सकता है। वे शुद्ध शास्त्रीय भाषामें न कह कर सुलभ ढंगसे हमें समझाते थे। आज ऐसे विद्वानों की बहुत कमी है जो वर्तमान युवा पीढ़ी व बच्चोंको जैनधर्मके बारेमें समझा सकें । हमलोग समझते हैं कि हर प्राणीको शुभ और अशुभ दोनों कर्मोका फल भुगतना पड़ेगा। इसलिए जो कर्म हो चुके हैं उनके बारेमें कुछ नहीं किया जा सकता और उनका फल भुगतना ही पड़ेगा। पर पण्डितजीने समझाया कि यह बात केवल अंशतः सत्य है। वास्तवमें जैनधर्म कर्म भाव प्रधान है और यदि भाव प्रबल है तो पिछले अशुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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