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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ३३१ के लिये निश्चयनयके दो भेद भी शास्त्रोंमें देखे जाते हैं -एक शुद्धनिश्चयनय और दूसरा अशुद्धनिश्चयनय । शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिमें 'शुद्ध चित्' ही जीवका स्वरूप है । अशुद्ध निश्चयनय आत्माके अशुद्ध रागादिभावोंको भी जीवके ही कहता है, पुद्गलके नहीं । व्यवहारनय सद्भूत और असद्भूत दोनोंमें उपचरित और अनपचरित अनेक प्रकारसे प्रवत्ति करता है। समयसारके टीकाकारोंने अपनी टीकाओं में वर्णादि और रागादिको व्यवहार और अशुद्धनिश्चयनयकी दृष्टिसे ही विचारनेका संकेत किया है । पंचाध्यायीका नय-विभाग पंचाध्यायीकार अभेदग्राहीको द्रव्यार्थिक और निश्चयनय कहते हैं तथा किसी भी प्रकारके भेदको ग्रहण करनेवाले नयको पर्यायार्थिक और व्यवहारनय कहते हैं । इनके मतसे निश्चयनयके शुद्ध और अशुद्ध भेद करना ही गलत है । ये वस्तुके सद्भूत भेदको व्यवहारनयका ही विषय मानते हैं । अखण्ड वस्तुमें किसी भी प्रकारका द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिकी दृष्टिसे होनेवाला भेद पर्यायाथिक या व्यवहारनयका विषय होता है । इनकी दृष्टि में समयसारगत परनिमित्तक-व्यवहार ही नहीं; किन्तु स्वगत भेद भी व्यवहारनयकी सीमामें ही होता है। व्यवहारनयके दो भेद हैं-एक सद्भुत व्यवहारनय और असद्भूत व्यवहारनय । वस्तुमें अपने गुणोंकी दृष्टिसे भेद करना सद्भूत व्यवहार है । अन्य द्रव्यके गुणोंकी बलपूर्वक अन्यत्र योजना करना असद्भूत व्यवहार है । जैसे वर्णादिवाले मूर्त पुद्गलकमंद्रव्यके संयोगसे होनेवाले क्रोधादि मूर्तभावोंको जीवके कहना । यहाँ क्रोधादिमें जो पुद्गलद्रव्यके मतत्वका आरोप किया गया है-यह असद्भुत है और गुण-गुणीका जो भेद विवक्षित है वह व्यवहार है । सद्भूत और असद्भूत व्यवहार दोनों ही उपचरित और अनुपचरितके भेदसे दो-दो प्रकारके होते है । 'ज्ञान जीवका है' यह अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय हैं तथा 'अर्थविकल्पात्मक ज्ञान प्रमाण है और वही जीवका गुण है' यह उपचरित सद्भूत व्यवहारनय है । इसमें ज्ञानमें अर्थविकल्पात्मकता उपचरित है और गुण-गुणीका भेद व्यवहार है। ___ अनगारधर्मामृत ( अध्याय १ श्लो० १०४"") आदिमें जो 'केवलज्ञान जीवका है' यह अनुपचरित सद्भूत व्यवहार तथा ‘मतिज्ञान जीवका है' यह उपचरित सद्भूत व्यवहारका उदाहरण दिया है। उसमें यह दृष्टि है कि शुद्ध गुणका कथन अनुपचरित तथा अशुद्ध गुणका कथन उपचरित है । अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय 'अबुद्धि पूर्वक' होनेवाले क्रोधादि भावोंको जीवका कहता है और उपचरित सद्भूत व्यवहारनय उदयमें आये हुए अर्थात् प्रकट अनुभवमें आनेवाले क्रोधादिभावोंको जीवके कहता है । पहलेमें वैभाविकी शक्तिका आत्मासे अभेद माना है । अनगारधर्मामृतमें 'शरीर मेरा है' यह अनुपचति असद्भूत व्यवहारका तथा 'देश मेरा है' यह उपचरित असद्भूत व्यवहारनयका उदाहरण माना गया है। पंचाध्यायीकार किसी दूसरे द्रव्यके गुणका दूसरे द्रव्यमें आरोप करना नयाभास मानते हैं। जैसेवर्णादिको जीवके कहना, शरीरको जीवका कहना, मूर्तकर्म व्योंका कर्ता और भोक्ता जीवको मानना, धन १. देखो,-द्रव्यसंग्रह गा० ४ । २. 'अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्यकर्मापेक्षया आभ्यन्तररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शद्धनिश्चयनयापेक्षया व्यवहार एव इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र ज्ञातव्यम् ।'-समयसार तात्पर्यवृत्ति गा० ७३ । ३. पंचाध्यायी श६५९-६१ । ४. पंचाध्यायी श५२५ से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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