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________________ २८४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थं व्यापक आत्मवाद वैदिक दर्शनोंमें प्रायः आत्माको अमूर्त और व्यापी स्वीकार किया है । व्यापक होनेपर भी शरीर और मनके सम्बन्धसे शरोरावच्छिन्न ( शरीरके भीतरके) आत्मप्रदेशों में ज्ञानादि विशेष गुणोंकी उत्पत्ति होती है । अमूर्त होनेके कारण आत्मा निष्क्रिय भी है । उसमें गति नहीं होती । शरीर और मन चलता है, और अपनेसे सम्बद्ध आत्मप्रदेशों में ज्ञानादिकी अनुभूतिका साधन बनता जाता है । इस व्यापक आत्मवाद में सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि एक अखण्ड द्रव्य कुछ भागों में सगुण और कुछ भागों में निर्गुण कैसे रह सकता है ? फिर जब सब आत्माओंका सम्बन्ध सबके शरीरोंके साथ है, तब अपनेअपने सुख, दुःख और भोगका नियम बनना कठिन है । अदृष्ट भी नियामक नहीं हो सकता; क्योंकि प्रत्येक के अदृष्टका सम्बन्ध उसकी आत्माकी तरह अन्य शेष आत्माओंके साथ भी हैं । शरीरसे बाहर अपनी आत्माकी सत्ता सिद्ध करना अत्यन्त दुष्कर कार्य है । व्यापक पक्षमें एकके भोजन करनेपर दूसरेको तृप्ति होनी चाहिए, और इस तरह समस्त व्यवहारोंका सांकर्य हो जायगा । मन और शरीर के सम्बन्धकी विभिन्नतासे व्यवस्था बैठाना भी कठिन है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें संसार और मोक्षकी व्यवस्थाएँ ही चौपट हो जाती हैं । यह सर्वसम्मत नियम है कि जहाँ गुण पाये जाते हैं, वहीं उसके आधारभूत द्रव्यका सद्भाव माना जाता है । गुणोंके क्षेत्रसे गुणीका क्षेत्र न तो बड़ा होता है, और न छोटा हो । सर्वत्र आकृतिमें गुणीके बराबर हो गुण होते हैं । अब यदि हम विचार करते हैं तो जब ज्ञानदर्शनादि आत्माके गुण हमें शरीर के बाहर उपलब्ध नहीं होते तत्र गुणोंके बिना गुणीका सद्भाव शरीर के बाहर कैसे माना जा सकता है ? अणु आत्मवाद इसी तरह आत्माको अणुरूप माननेपर, अँगूठे में काँटा चुभनेसे सारे शरीरके आत्मप्रदेशों में कम्पन और दुःखका अनुभव होना असम्भव हो जाता है। अणुरूप आत्माकी सारे शरीर में अतिशीघ्र गति माननेपर भी इस शंकाका उचित समाधान नहीं होता; क्योंकि क्रम अनुभवमें नहीं आता । जिस समय अणु आत्माका चक्षुके साथ सम्बन्ध होता है, उस समय भिन्नक्षेत्रवर्ती रसना आदि इन्द्रियोंके साथ युगपत् सम्बन्ध होना असंभव है । किन्तु नीबूको आँखसे देखते ही जिह्वा इन्द्रियमें पानीका आना यह सिद्ध करता है कि दोनों इन्द्रियोंके प्रदेशोंसे आत्मा युगपत् सम्बन्ध रखता है। सिरसे लेकर पैर तक अणुरूप आत्माके चक्कर लगाने में कालभेद होना स्वाभाविक है जो कि सर्वांगीण रोमाञ्चादि कार्यसे ज्ञात होनेवाली युगपत् सुखानुभूतिके विरुद्ध है । यही कारण है कि जैनदर्शनमें आत्माके प्रदेशों में संकोच और विस्तारकी शक्ति मानकर उसे शरीरपरिमाणवाला स्वीकार किया है। एक ही प्रश्न इस सम्बन्धमें उठता है कि - 'अमूर्तिक आत्मा कैसे छोटे-बड़े शरीर में भरा रह सकता है, उसे तो व्यापक ही होना चाहिए या फिर अणुरूप ?' किन्तु जब अनादिकाल से इस आत्मामें पौद्गलिक कर्मोंका सम्बन्ध है, तब उसके शुद्ध स्वभावका आश्रय लेकर किये जानेवाले तर्क कहाँ तक संगत हैं ? 'इस प्रकारका एक अमूर्तिक द्रव्य है जिसमें कि स्वभावसे संकोच और विस्तार होता है ।' यह मानने में युक्तिका बल अधिक है; क्योंकि हमें अपने ज्ञान और सुखादि गुणोंका अनुभव अपने शरीर के भीतर ही होता है । भूत-चैतन्यवाद चार्वाक पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इस भूतचतुष्टयके विशिष्ट रासायनिक मिश्रणसे शरीर की उत्पत्तिकी तरह आत्माकी भी उत्पत्ति मानते हैं । जिस प्रकार महुआ आदि पदार्थोंके सड़ाने से शराब बनती है और उसमें मादक शक्ति स्वयं आ जाती है उसी तरह भूतचतुष्टय के विशिष्ट संयोगसे चैतन्य शक्ति भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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