SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षद्रव्य विवेचन छह द्रव्य द्रव्यका सामान्य लक्षण यह है-जो मौलिक पदार्थ अपनी पर्यायोंको क्रमशः प्राप्त हो वह द्रव्य है । द्रव्य उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होता है। उसके मूल छह भेद हैं-१. जीव, २. पुद्गल, ३. धर्म, ४. अधर्म, ५. आकाश और ६. काल । वे छहों द्रव्य प्रमेय होते हैं। १. जीव द्रव्य जीव द्रव्यको, जिसे आत्मा भी कहते है, जैनदर्शनमें एक स्वतंत्र मौलिक माना है। उसका सामान्यलक्षण उपयोग है । उपयोग अर्थात चैतन्यपरिणति । चैतन्य ही जीवका असाधारण गुण है जिससे वह समस्त जड़ द्रव्योंसे अपना पृथक् अस्तित्व रखता है। बाह्य और आभ्यन्तर कारणोंसे इस चैतन्यके ज्ञान और दर्शन रूपसे दो परिणमन होते हैं। जिस समय चैतन्य 'स्व' से भिन्न किसी ज्ञेयको जानता है उस समय वह 'ज्ञान' कहलाता है और जब चैतन्यमात्र चैतन्याकार रहता है, तब वह 'दर्शन' कहलाता है। जीव असंख्यात प्रदेशवाला है। चूंकि उसका अनादिकालसे सूक्ष्म कार्मण शरीरसे सम्बन्ध है, अतः वह कर्मोदयसे प्राप्त शरीरके आकारके अनुसार छोटे-बड़े आकारको धारण करता है। इसका स्वरूप निम्नलिखित गाथामें बहुत स्पष्ट बताया गया है-- "जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई॥" -द्रव्यसंग्रह गाथा २ अर्थात्-~-जीव उपयोगरूप है, अमूर्तिक है, कर्ता है, स्वदेहपरिमाण है, भोक्ता है, संसारी है, सिद्ध है और स्वभावसे ऊर्ध्वगमन करनेवाला है । यद्यपि जीवमें रूप, रस, गंध और स्पर्श ये चार पुद्गलके धर्म नहीं पाये जाते, इसलिए वह स्वभावसे अमतिक है। फिर भी प्रदेशों में संकोच और विस्तार होनेसे वह अपने छोटे-बड़े शरीरके परिमाण हो जाता है। आत्माके आकारके विषयमें भारतीय दर्शनोंमें मुख्यतया तीन मत पाये जाते है । उपनिषदें आत्माके सर्वगत और व्यापक होनेका जहाँ उल्लेख मिलता है, वहाँ उसके अंगुष्ठमात्र तथा अणुरूप होनेका भी कथन है। १. "अपरिचत्तसहावेणुप्पायन्वयधुवत्तसंजुत्तं । गुणवं च सपज्जायं जं तं दव्वं ति बुच्चं ति ॥३॥"-प्रवचनसार । "दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावपज्जयाई।"-पंचा० गा० ९। २. "उपयोगो लक्षणम्'-तत्त्वार्थसूच २।८ । ३. "सर्वव्यापिनमात्मानम् ।'"-श्वे० १।१६ । ४. "अगुष्ठमात्रः पुरुषः"-श्वे० ३।१३ । कठो०४।१२। "अणीयान् ब्रीहेर्वा यवाद्वा""-छान्दो० ३।१४।३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy