SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८: डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ एक प्रकाशमान नक्षत्र .पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री मैं अपनी शिक्षा समाप्त करके, कटनीके दिगम्बर जैन विद्यालयमें प्राध्यापकके पद पर नियुक्त होकर कार्य करने लगा था । एक बार पर्यषण पर्वमें मैं खुरई समाजके द्वारा आमंत्रित था । खुरईमें एक सरकारी कन्याशालाके प्रधानाध्यापक मास्टर कन्छेदीलालजी अच्छे अनुभवी विद्वान् थे। मेरे पिताजीके साथ उनके सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध थे, उन्होंने यह परिचय कराया कि एक बालक बीनाके जैन विद्यालयमें अध्ययन करने वाला यहाँ आया है, और वह आपसे मिलना चाहता है। वह आया । उसके मिलने के बाद मुझे यह पता चला कि इनका नाम महेन्द्रकुमार जैन है, और ये इस समय जैन न्याय मध्यमाकी परीक्षाकी तैयारी कर रहे हैं। मुझे उनसे दो-चार प्रश्नोंके उत्तर मालम कर संतोष हुआ कि यह बालक बहुत होनहार और बुद्धिमान् है। कालक्रमसे ये अपने अध्ययनके लिए काशी गए और वहाँ न्यायशास्त्रमें आचार्य परीक्षा पास की। सम्भवतः ये प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने न्यायशास्त्रकी आचार्य परीक्षाके पूर्व छः खण्डोंको उत्तीर्ण किया था। मेरे साथ उनका सम्पर्क बराबर बना हुआ था। मैं उन्हें हमेशा प्रोत्साहन देता था और उनकी विद्योन्नति देखकर मुझे बड़ा हर्ष होता था। पूज्य पं० गणेशप्रसाद जी वर्णी भी जैन समाजमें अग्रगण्य चारित्रधारी महापुरुष थे । कालान्तरमें पूज्यवर्णी जीके नामसे एक ग्रन्थ प्रकाशिनी संस्थाका जन्म हुआ। उसके अध्यक्ष हमारे विद्या गुरु पण्डित बंशीधरजी न्यायालंकार थे और मैं उपाध्यक्ष था । उन दिनों पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने "जैन दर्शन" नामसे एक विस्तृत ग्रन्थ करीब ६०० पृष्ठका लिखकर तैयार किया था। वर्णी ग्रंथमालासे उस ग्रन्थको प्रकाशन करनेकी योजना बनाई थी। पं. बंशीधर व्याकरणाचार्य बीना, ग्रन्थमालाके मंत्री थे। अतः मंत्रीजीके और मेरे बीचमें यह प्रश्न खड़ा था । परन्तु ग्रन्थमालाकी आर्थिक स्थिति कुछ कमजोर थी फिर भी हम लोगोंने यह निर्णय किया कि ग्रन्थमालाकी मलनिधि भी खर्च हो जाय तो कोई चिन्ताकी बात नहीं परन्तु इस अपूर्व कृतिका ग्रन्थमालासे प्रकाशन अवश्य होना चाहिए । इस निर्णयानुसार ग्रन्थमाला समितिने अक्टूबर १९५५ में इसका प्रकाशन किया । इस ग्रंथका सम्पादन तत्कालीन सुयोग्य विद्वान् पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने किया । ऐतिहासिक दृष्टिसे भारतवर्षमें जब बौद्धोंका प्रभुत्व था और उनके तर्कपूर्ण प्रहारोंसे न्यायशास्त्रके विद्वानोंमें खलबली मच गई थी उस समय जैनदर्शनके विद्वानोंमें आचार्य समन्तभद्र और आचार्य सिद्धसेन दो समर्थ आचार्य इस प्रकारके आचार्य हुए जिन्होंने इस युगमें आनेवाले जैनधर्मके प्रति आक्षेपोंका तर्क पूर्ण भाषामें अनेकान्त शैलीमें उत्तर दिया और आक्षेपोंका निराकरण करते हए जैनदर्शनके प्रमाण और प्रमेय तत्त्वोंकी तर्क पूर्णभाषामें स्थापना की थी। आचार्य समन्तभद्र के जीवन कालकी यह घटना उनके आर्हत मतकी दृढ़ श्रद्धाकी परिचायिका है। जब उन्हें भस्मक व्याधि उत्पन्न हुई। तो उस समय उन्होंने अपने मनि पदकी मर्यादाको भी गौण कर कृत्रिम रूपमें "शिवपूजक" बनकर अपने रोगका शमन किया । जब शिवजीको लगने वाली सम्पूर्ण भोग सामग्रीको वे रोग क्रमशः शांति होने पर पूरा नहीं खा सके तब उनकी कपट-स्थिति उस समयके शासकके सामने प्रकट हो गई और आदेश दिया कि तुम अपने अपराधके प्रायश्चित्त स्वरूप महादेवजीकी वन्दना करो। आचार्य समन्तभद्रने अपने सम्यकदर्शनकी प्रभुताके आधार पर उन्हें उत्तर दिया कि मेरा नमस्कार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy