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________________ १/ संस्मरणः आदराञ्जलि : ७ दर्शनशास्त्र के महान् विद्वान् • सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजीके विषयमें हम क्या लिखें। इतना ही लिखना पर्याप्त होगा कि जैन समाजमें दर्शनशास्त्रके जो भी इने-गिने विद्वान् है उनमें ये प्रथम हैं। इन्होंने जैनदर्शनके साथ सब भारतीय दर्शनोंका साङ्गोपाङ्ग अध्ययन किया है। इन्होंने ही बड़े परिश्रम और अध्ययनपूर्वक स्वतन्त्र कृतिके रूप में जैनदर्शन ग्रन्थका निर्माण किया है। एक ऐसी मौलिक कृतिकी आवश्यकता तो थी ही, जिसमें जैनदर्शनके सभी दार्शनिक मन्तव्योंका ऊहापोहके साथ विचार किया गया हो। हम समझते हैं कि इस सर्वांगपूर्ण कृति द्वारा उस आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है। अतएव पं० महेन्द्रकुमारजी का जितना आभार माने, थोड़ा है। -जैनदर्शन ( अपनी बात ) १९५५ सम्पादन कला के आचार्य • सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री पण्डित महेन्द्रकुमारजी अपने विद्यार्थी जीवन से ही बड़े प्रतिभाशाली थे। जैन न्यायका आज उन जैसा अधिकारी विद्वान कोई दृष्टिगोचर नहीं होता जो उनका भार संभालने की योग्यता रखता हो । दर्शनके प्रायः सभी प्रमुख ग्रन्थोंका उन्होंने पारायण कर डाला था। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, बौद्ध सभी दर्शनोंके ग्रंथ उनके दृष्टिपथसे निकल चुके थे और सम्पादन कलामें तो वह आचार्य हो गये थे । दिगम्बर जैन समाजमें आज उन जैसा न कोई दार्शनिक है और न संपादक । प्रत्येक व्यक्तिमें गुण भी होते हैं और दोष भी । पं० महेन्द्रकुमारजी में दोनों थे, किन्तु उन जैसा अध्यवसायी, उनके जैसा कर्मठ और उनके जैसा धुनका पक्का व्यक्ति होना कठिन है। उनके जीवनका एकमात्र लक्ष्य था-"स्वकार्य साधयेत् धीमान" बुद्धिमानका कर्तव्य है कि अपने कार्यको सिद्ध करे। यही उनका मूल मंत्र था। उन्होंने अपने इस मूल मंत्रके सामने आपत्तियाँ/विपत्तियाँ की कभी परवाह नहीं की। -जैनसन्देश २८ मई १९५९ दार्शनिक चिन्तन के मनीषी • प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी संघवी "पं० महेन्द्रकुमारजीके साथ मेरा परिचय छह सालका है । इतना ही नहीं बल्कि इतने अरसेके दार्शनिक चिन्तनके अखाड़े में हम लोग समशील साधक हैं। इससे मैं पूरा तटस्थ्य रखकर भी निःसंकोच कह सकता हूँ कि पं० महेन्द्रकुमारजीका विद्याव्यायाम कम-से-कम जैन परम्पराके लिए तो सत्कारास्पद ही नहीं अनुकरणीय भी है। प्रस्तुत ग्रन्थका बहुश्रुतसम्पादन उक्त कथन का साक्षी है। प्रस्तावनामें विद्वान संपादकने अकलंकदेवके समयके बारे में जो विचार प्रकट किया है, मेरी समझमें अन्य समर्थ प्रमाणों के अभावमें वही विचार आन्तरिक यथार्थ तुलनामलक होनेसे सत्यके विशेष निकट है । समयविचारमें संपादकने जो सूक्ष्म और विस्तृत तुलना की है, वह तत्त्वज्ञान तथा इतिहासके रसिकोंके लिए बहुमूल्य भोजन है।"मैं पंडितजी की प्रस्तुत गवेषणापूर्ण और श्रमसाधित सत्कृतिका सच्चे हृदयसे अभिनन्दन करता हूँ, और साथ ही जैन समाज, खासकर दिगम्बर समाज के विद्वानों और श्रीमानोंसे भी अभिनन्दन करनेका अनुरोध करता है। विद्वान तो पंडितजीकी सभी कृतियोंका उदारभावसे अध्ययन-अध्यापन करके अभिनन्दन कर सकते हैं। ( दर्शन और चिंतन पृ० 481, 475 से ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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