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________________ २३६ : डाँ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचायें स्मृति ग्रन्थ सातवें अध्याय में आस्रवका, आठवें अध्यायमें बन्धका, नौवें में संवरका तथा दशवें अध्यायमें मोक्षका वर्णन है । प्रथम अध्याय में मोक्षकामार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको बताकर जीवादि सात तत्त्वों के अधिगम के उपाय प्रमाण, नय, निक्षेप और निर्देशादि सदादि अनुयोगोंका वर्णन है । पाँच ज्ञान उनका विषय आदिका निरूपण करके उनमें प्रत्यक्ष, परोक्ष विभाग उनका सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और नयोंका विवेचन, किया गया है । द्वितीय अध्यायमें जीवके औपशमिक आदि भाव, जीवका लक्षण, शरीर, इन्द्रियाँ, योनि, जन्म आदिका सविस्तार निरूपण है। तृतीय अध्याय में जीवके निवासभूत - अधोलोक और मध्यलोक गत भूगोलका उसके निवासियोंकी आयु कायस्थिति आदिका पूरा-पूरा वर्णन है । चौथे अध्याय में ऊर्ध्वलोकका, देवोंके भेद, लेश्याएँ, आयु, काय, परिवार आदिका वर्णन है । पांचवें अध्यायमें अजीवतत्त्व अर्थात् पुद्गल धर्म, अधर्म, आकाश, और काल द्रव्यों का समग्र वर्णन है । द्रव्योंकी प्रदेश संख्या, उनके उपकार, शब्दादिका पुद्गल पर्यायत्व, स्कन्ध बनने की प्रक्रिया आदि पुद्गल द्रव्यका सर्वांगीण विवेचन है। छठवें अध्याय में ज्ञानावरदि कर्मों का सविस्तार निरूपण है । किन-किन वृत्तियों और प्रवृत्तियोंसे किस-किस कर्मका आस्रव होता है, कैसे आस्रव में विशेषता होती है, कौन कर्म पुण्य है, और कौन पाप आदिका विशद विवेचन है । सातवें अध्यायमें शुभ आस्रवके कारण, पुण्यरूप अहिंसादि व्रतोंका वर्णन है । इसमें व्रतोंकी भावनाएँ उनके लक्षण, अतिचार आदिका स्वरूप बताया गया है। आठवें अध्याय में प्रकृतिबन्ध आदि चारों बन्धोंका, कर्मप्रकृतियोंका उनकी स्थिति आदिका निरूपण है । नौवें अध्यायमें संवर तत्त्वका पूरा-पूरा निरूपण है । इसमें गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा परिषहजय, चारित्र, तप, ध्यान आदिका सभेदप्रभेद निरूपण है । दशवें raat में मोक्षका वर्णन है । सिद्धों में भेद किन निमित्तोंसे हो सकता है । जीव ऊर्ध्वगमन क्यों करता है ? सिद्ध अवस्था में कौन-कौन भाव अवशिष्ट रह जाते हैं आदिका निरूपण है । यह अकेला तत्त्वार्थ सूत्र जैन ज्ञान, जैन भूगोल, खगोल, जैनतस्व, कर्मसिद्धान्त, जैन चारित्र आदि समस्त मुख्य-मुख्य विषयोंका अपूर्व आकर है । मंगल श्लोक –'मोक्षमार्गस्य नेतारम् श्लोक तत्त्वार्थ सूत्रका मंगल श्लोक है या नहीं यह विषय विवादमें पड़ा हुआ है । यह श्लोक उमास्वामि कर्तृक है इसका स्पष्ट उल्लेख श्रुतसागरसूरिने तत्त्वार्थवृत्ति में किया है । वे इसकी उत्थानिकामें लिखते हैं कि - द्वैयाक नामक भव्य के प्रश्नका उत्तर देनेके लिए उमास्वामि भट्टारकने यह मंगल श्लोक बनाया । द्वैयाकका प्रश्न है- 'भगवन्, आत्माका हित क्या है ?' उमास्वामी उनका उत्तर 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' सूत्र में देते हैं । पर उन्हें उत्तर देने के पहिले मंगलाचरण करनेकी आवश्यकता प्रतीत होने लगती है । श्रुतसागरके पहिले विद्यानन्द आचार्यने आप्तपरीक्षा ( पृ० ३ ) में भी इस श्लोकको सूत्रकारके नामसे उद्धृत किया है । पर यही विद्यानन्द 'तत्त्वार्थसूत्रकारैः उमास्त्रामिप्रभृतिभिः' जैसे वाक्य भी आप्त परीक्षा ( पृ० ५४ ) में लिखते हैं जो उमास्वामिके साथ ही साथ प्रभृति शब्दसे सूचित होनेवाले आचार्यों को भी तत्त्वार्थसूत्रकार माननेका या सूत्र शब्दको गौणार्थताका प्रसंग उपस्थित करते हैं । यद्यपि अभयनन्दि श्रुतसागर जैसे पश्चाद्वर्ती ग्रन्थकारोंने इस श्लोकको तत्त्वार्थसूत्रका मंगल लिख दिया है पर इनके इस लेख में निम्नलिखित अनुपपत्तियां हैं जो इस श्लोकको पूज्यपाद को सर्वार्थसिद्धिका मंगल श्लोक माननेको बाध्य करती हैं १- पूज्यपाद इस मंगलश्लोककी न तो उत्थानिका लिखी और न व्याख्या की । इस मंगलश्लोकके बाद ही प्रथमसूत्रकी उत्थानिका शुरू होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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