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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : २३५ पदोंकी राजभाषाएँ कही जाती थीं। इनमें नाममात्रका हो अन्तर था । क्षुल्लकभाषाओंका अन्तर तो उच्चारण की टोनका ही समझना चाहिए। जो हो, पर महावीरका उपदेश उस समयको लोकभाषामें होता था जिसमें संस्कृत जैसी वर्गभाषाका कोई स्थान नहीं था। बुद्धको पालीभाषा और महावीरको अर्धमागधी भाषा करीबकरीब एक जैसी भाषाएं हैं। इनमें वहो चारकोसकी बानी वाला भेद है । अर्धमागधीको सर्वार्धमागधी भाषा भी कहते है और इसका विवेचन करते हुए लिखा है “अर्धं भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकम् अर्धं च सर्वदेशभाषात्मकम्" अर्थात्-भगवान्की भाषामें आधे शब्द तो मगध देशकी भाषा मागधीके थे और आधे शब्द सभी देशोंकी भाषाओंके थे । तात्पर्य यह कि अर्धमागधी भाषा वह लोकभाषा थी जिसे प्रायः सभी देशके लोग समझ सकते थे। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि महावीरकी जन्मभूमि मगध देश थी, अतः मागधी उनकी मातृभाषा थी और उन्हें अपना विश्वशान्तिका अहिंसा सन्देश सब देशोंकी कोटि-कोटि उपेक्षित और पतित जनता तक भेजना था अतः उनको बोलीमें सभी देशोंकी बोलीके शब्द शामिल थे और यह भाषा उस समयकी सर्वाधिक जनताकी अपनी बोली थी अर्थात् सबकी बोली थी। जनबोलीमें उपदेश देनेका कारण बतानेवाला एक प्राचीन श्लोक मिलता है "बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां न्दणां चारित्र्यकांक्षिणाम् । प्रतिबोधनाय तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ।।" अर्थात-बालक, स्त्री या मर्खसे मर्ख लोगोंको, जो अपने चारित्र्यको समन्नत करना चाहते हैं, प्रतिबोध देनेके लिए भगवान्का उपदेश प्राकृत अर्थात् स्वाभाविक जनबोलीमें होता था न कि संस्कृत अर्थात् बनी हुई बोली-कृत्रिम वर्गभाषामें । इन जनबोलीके उपदेशोंका संकलन 'आगम' कहा जाता है। इसका बड़ा विस्तार था । उस समय लेखनका प्रचार नहीं हुआ था। सब उपदेश कण्ठपरम्परा से सुरक्षित रहते थे। एक दूसरेसे सुनकर इनकी धारा चलती थी अतः ये 'श्रत' कहे जाते थे । महावीरके निर्वाणके बाद यह श्रुत परम्परा लुप्त होने लगी और ६८३ वर्ष बाद एक अंगका पूर्ण ज्ञान भी शेष न रहा। अंगके एक देशका ज्ञान रहा । श्वेताम्बर परम्परामें बौद्ध संगीतियोंकी तरह वाचनाएँ हुईं और अन्तिम वाचना देवधिगणि क्षमाश्रमणके तत्त्वावधानमें वीर संवत् ९८० वि० सं० ५१० में वलभीमें हुई। इसमें आगमोंका त्रुटित-अत्रुटित जो रूप उपलब्ध था संकलित हुआ। दिगम्बर परम्परामें ऐसा कोई प्रयत्न हुआ या नहीं इसकी कुछ भी जानकारी नहीं है । दिगम्बर परम्परामें विक्रमकी द्वितीय-तृतीय शताब्दीमें आचार्य भतबलि, पुष्पदन्त और गुणधरने षट्खंडागम और कसायपाहुडकी रचना आगमाश्रित साहित्यके आधारसे की। पीछे कुन्दकुन्द आदि आचार्योंने आगम परम्पराको केन्द्रमें रखकर तदनुसार स्वतन्त्र ग्रन्थ रचना की। अनुमान है कि विक्रमकी तीसरी-चौथी शताब्दीमें उमास्वामी भट्टारकने इस तत्त्वार्थसूत्रकी रचना की थी । इसीसे जैन परम्परामें संस्कृतग्रन्थनिर्माणयुग प्रारम्भ होता है । इस तत्त्वार्थसूत्रकी रचना इतने मूलभूत तत्त्वोंको संग्रह करनेकी असाम्प्रदायिक दृष्टिसे हुई है कि इसे दोनों जैन सम्प्रदाय थोड़े बहुत पाठभेदसे प्रमाण मानते आए है । श्वे० परम्परामें जो पाठ प्रचलित है उसमें और दिगम्बर पाठ में कोई विशिष्ट साम्प्रदायिक मतभेद नहीं है। दोनों परम्पराओंके आचार्योंने इसपर दशों टीका ग्रन्थ लिखे हैं । इस सूत्र ग्रन्थको दोनों परम्पराओंमें एकता स्थापना का मल आधार बनाया जा सकता है। इसे मोक्षशास्त्र भी कहते हैं क्योंकि इसमें मोक्षके मार्ग और तदुपयोगी जीवादि तत्त्वोंका ही सविस्तार निरूपण है । इसमें दश अध्याय है । प्रथमके चार अध्यायोंमें जीवका, पांचवें में अजीव का, छठवें और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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