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________________ २२४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ लेते हैं जो मानवजाति कभी हमारा पुनः परलोक बन सकती है। हमारे कुकृत्योंसे नरक बना हुआ यही मानवसमाज हमारे पुनर्जन्मका स्थान हो सकता है । यदि हमारा जीवन मानव-समाज और पशुजातिके सुधार और उद्धारमें लग जाता है तो नरकमें जन्म लेनेका मौका ही नहीं आ सकता । कदाचित् नरकमें पहुँच भी गए तो अपने पूर्व संस्कारवश नारकियोंको भी सुधारने का प्रयत्न किया जा सकता है । तात्पर्य यह कि हमारा परलोक यही हमसे भिन्न अखिल मनुष्य समाज और पशुजाति हैं जिनका सुधार हमारे परलोकका आधा सुधार है। दूसरा परलोक है हमारी सन्तति । हमारे इस शरीरसे होनेवाले यावत् सत्कर्म और दुष्कर्मोंके रक्तद्वारा जीवित संस्कार हमारी सन्ततिमें आते हैं। यदि हममें कोढ़, क्षय या सूजाक जैसी संक्रामक बीमारियाँ है तो इसका फल हमारी सन्ततिको भोगना पड़ेगा । असदाचार और शराबखोरी आदिसे होनेवाले पापसंस्कार रक्तद्वारा हमारी सन्ततिमें अंकुरित होंगे तथा बालकके जन्म लेनेके बाद वे पल्लवित पुष्पित और फलित होकर मानवजातिको नरक बनायेंगे । अतः परलोकको सुधारने का अर्थ है सन्ततिको सुधारना और सन्ततिको सुधारनेका अर्थ है अपनेको सुधारना । जब तक हमारी इस प्रकारकी अन्तमुखो दृष्टि न होगी तब तक हम मानव जातिके भावी प्रतिनिधियोंके जीवनमें उन असंख्य काली रेखाओंको अंकित करते जायेंगे जो सीधे हमारे असंयम और पापाचारका फल है। एक परलोक है-शिष्य परम्परा । जिस प्रकार मनुष्यका पुनर्जन्म रक्तद्वारा अपनी सन्ततिमें होता है उसी तरह विचारों द्वारा मनुष्यका पुनर्जन्म अपने शिष्योंमें या आसपासके लोगोंमें होता है। हमारे जैसे आचारविचार होंगे, स्वभावतः शिष्योंके जीवनमें उनका असर होगा ही। मनुष्य इतना सामाजिक प्राणी है कि वह जान या अनजानमें अपने आसपासके लोगोंको अवश्य ही प्रभावित करता है । बापको बीड़ी पीता देखकर छोटे बच्चोंको झूठे ही लकड़ीकी बीड़ी पीनेका शौक होता है और यह खेल आगे जाकर व्यसनका रूप ले लेता है । शिष्य परिवार मोमका पिंड है। उसे जैसे साँचे में ढाला जायगा ढल जायगा । अतः मनुष्यके ऊपर अपने सुधार-बिगाड़की जबाबदारी तो है ही साथ ही साथ मानव समाजके उत्थान और पतनमें भी उसका साक्षात् और परम्परया खास हाथ है। रक्तजन्य सन्तति तो अपने पुरुषार्थद्वारा कदाचित् पितृजन्य कुसंस्कारोंसे मुक्त भी हो सकती है पर यह विचारसन्तति यदि जहरीलो विचारधारासे बेहोश हुई तो इसे होशमें लाना बड़ा दुष्कर कार्य है । आजका प्रत्येक व्यक्ति इस नूतनपीढ़ी पर ही आँख गड़ाए हुए है। कोई उसे मजहबकी शराब पिलाना चाहता है तो कोई हिन्दुत्वकी, तो कोई जाति की तो कोई अपनी कुल परम्परा की। न जाने कितने प्रकारको विचारधाराओंकी रंग विरंगी शराबें मनुष्यकी दुबुद्धिने तैयार की हैं और अपने वर्गका उच्चत्व, स्वसत्ता स्थायित्व और स्थिर स्वार्थोंकी संरक्षाके लिए विविध प्रकारके धार्मिक सांस्कृतिक सामाजिक और राष्ट्रीय आदि सुन्दर मोहक पात्रोंमें ढाल-ढालकर भोली नतन पीढ़ीको पिलाकर उन्हें स्वरूपच्युत किया जा रहा है। वे इसके नशेमें उस मानवसमत्वाधिकारको भलकर अपने भाइयोंका खून बहानेमें भी नहीं हिचकिचाते । इस मानवसंहारयुगमें पशुओंके सुधार और उनकी सुरक्षाकी बात तो सुनता ही कौन है ? अतः परलोक सुधारके लिए हमें परलोकके सम्यग्दर्शनकी आवश्यकता है। हमें समझना होगा कि हमारा पुरुषार्थ किस प्रकार उस परलोकको सुधार सकता है । परलोकमें स्वर्गके सुखादिके लोभसे इस जन्म में कुछ चारित्र या तपश्चरणको करना तो लम्बा व्यापार है। यदि ३२ देवियोंके महासुखकी तीवकामनासे इस जन्ममें एक बूढ़ी स्त्रीको छोड़कर ब्रह्मचर्य धारण किया जाता है तो यह केवल प्रवञ्चना है । न यह चारित्रका सम्यग्दर्शन है और न परलोकका । यह तो कामना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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