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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : २२३ उस पर्यायमें उपाजित किये गए ज्ञान विज्ञान शक्ति आदिको वहीं छोड़ देता है, मात्र कुछ सूक्ष्म संस्कारों के साथ परलोकमें प्रवेश करता है । जिस योनिमें जाता है वहाँके वातावरणके अनुसार विकसित होकर बढ़ता है। अब यह विचारनेकी बात है कि मनुष्यके लिए मरकर उत्पन्न होनेके दो स्थान तो ऐसे हैं जिन्हें मनुष्य इसी जन्ममें सुधार सकता है, अर्थात् मनुष्य योनि और पश योनि इन दो जन्मस्थानोंके संस्कार और वातावरणको सुधारना तो मनुष्यके हाथमें है ही । अपने स्वार्थकी दृष्टिसे भी आधे परलोकका सुधारना हमारी रचनात्मक प्रवृत्तिकी मर्यादामें है । बीज कितना ही परिपुष्ट क्यों न हो यदि खेत ऊबड़-खाबड़ है, उसमें कास आदि है, सांप, चूहे, छछू दर आदि रहते हैं तो उस बीजकी आधी अच्छाई तो खेतकी खराबी और गन्दे वातावरणसे समाप्त हो जाता है। अतः जिस प्रकार चतुर किसान बीजकी उत्तमत्ताकी चिन्ता करता है उसी प्रकार खेतको जोतने बखरने, उसे जीवजन्तुरहित करने, घास फूस उखाड़ने आदिको भी पूरी-पूरी कोशिश करता ही है, तभी उसकी खेती समृद्ध और आशातीत फलप्रसूत होती है। इसी तरह हमें भी अपने परलोकके मनुष्यसमाज और पशसमाज रूप दो खेतोंको इस योग्य बना लेना चाहिए कि कदाचित् इनमें पुनः शरीर धारण करना पड़ा तो अनुकल सामग्री और सुन्दर वातावरण तो मिल जाय । यदि प्रत्येक मनुष्यको यह दृढ़ प्रतीति हो जाय कि हमारा परलोक यही मनुष्य समाज है और परलोक सुधारनेका अर्थ इसी मानव समाजको सुधारना है तो इस मानवसमाजका नक्शा ही बदल जाय । इसी तरह पशुसमाजके प्रति भी सद्भावना उत्पन्न हो सकती है और उनके खानेपीने रहने आदिका समुचित प्रबन्ध हो सकता है। अमेरिकाकी गाएँ रेडियो सुनती हैं। और सिनेमा देखती हैं। वहाँकी गोशालाएँ यहाँके मानव घोंसलोंसे अधिक स्वच्छ और व्यवस्थित हैं। परलोक अर्थात् दसरे लोग, परलोकका सुधार अर्थात् दसरे लोगोंका-मानवसमाजका सुधार । जब यह निश्चित है कि मरकर इन्हीं पशुओं और मनुष्योंमें भी जन्म लेनेकी सम्भावना है तो समझदारी और सम्यग्दर्शनकी बात तो यह है कि इस मानव और पश समाजमें आए हुए दोषोंको निकालकर इन्हें निर्दोष बनाया जाय । यदि मनुष्य अपने कुकृत्योंसे मानवजातिमें क्षय, सुजाक, कोढ़, मृगी आदि रोगीको सृष्टि करता है, इसे नीतिभ्रष्ट, आचारविहीन, कलह केन्द्र और शराबखोर आदि बना देता है तो वह कैसे अपने मानव परलोकको सुखी कर सकेगा । आखिर उसे भी इसी नरकभूत समाजमें जन्म लेना पड़ेगा। इसी तरह गाय, भैस आदि पशुओंकी दशा यदि मात्र मनुष्यके ऐहिक स्वार्थके ही आधारपर चली तो उनका कोई सुधार नहीं हो सकता । उनके प्रति सद्भाव हो। यह समझें कि कदाचित् हमें इन योनियोंमें जन्म लेना पड़ा तो यही भोग हमें भोगना पड़ेंगे। जो परम्पराएँ हम इनमें डाल रहे है उन्हींके चक्रमें हमें भी पिसना पड़ेगा। जैसा करोगे वैसा भरोगे, इसका वास्तविक अर्थ यही है कि यदि अपने कुकृत्योंसे इस मानव समाज और पशु समाजको कलंकित करोगे तो परलोकमें कदाचित् इन्हीं समाजोंमें आना पड़ा तो उन अपने कुकृत्योंका भोग भोगना ही पड़ेगा। मानव समाजका सुख दुःख तत्कालीन समाज व्यवस्थाका परिणाम है। अतः परलोकका सम्यग्दर्शन यही है कि जिस आधे परलोकका सुधार हमारे हाथ में है उसका सुधार ऐसी सर्वोदयकारिणी व्यवस्था करके करें जिससे स्वर्गमें उत्पन्न होनेकी इच्छा ही न हो। यही मानवलोकसे भी अधिक सर्वाभ्युदय कारक बन जाय । हमारे जीवन के असदाचार असंयम कुटेव बीमारी आदि सीधे हमारे वीर्यकणको प्रभावित करते हैं और उससे जन्म लेनेवाली सन्ततिके द्वारा मानवसमाजमें वे सब बीमारियाँ और चरित्रभ्रष्टताएं फैल जाती हैं अतः इनसे परलोक बिगड़ता है । इसका तात्पर्य यही है कि खोटे संस्कार सन्तति द्वारा उस मानवजातिमें घर कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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