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________________ ४ | विशिष्ट निबन्ध : २२१ धर्माधिकार है, इसका धर्माधिकार नहीं है आदि" । तब अर्न्तदृष्टि कहता है कि राजा, विद्वान्, स्वस्थ, ऊँच, नीच आदि बाह्यापेक्ष होनेसे हेय हैं, इन रूप तुम्हारा मलस्वरूप नहीं है, वह तो सिद्धके समान शुद्ध है उसमें न कोई राजा है न रंक, न कोई ऊँच न नीच, न कोई रूपवान् न कुरूपी । उसकी दृष्टिमें सब अखण्ड चैतन्यमय समस्वरूप समानाधिकार है । इस व्यवहारमें अहंकारको उत्पन्न करनेका जो जहर है, भेद खड़ा करनेकी जो कुटेव है, निश्चय उसीको नष्ट करता है और अभेद अर्थात् समत्वकी ओर दृष्टिको ले जाता है और कहता है कि-मूर्ख, क्या सोच रहा है, जिसे तू नीच और तुच्छ समझ रहा है वह भी अनन्त चैतन्यका अखण्ड मौलिक द्रव्य है, परकृत भेदसे तू अहंकारकी सृष्टि कर रहा है और भेदका पोषण कर रहा है, शरीराश्रित ऊँच-नीचभावकी कल्पनासे धर्माधिकार जैसे भीषण अहंकारकी बात बोलता है ? इस अनन्त विभिन्नतामय अहंकारपूर्ण व्यवहारसंसारमें निश्चय ही एक अमृतशलाका है जो दृष्टिमें व्यवहारका भेदविष नहीं चढ़ने देती। पर ये निश्चयकी चर्चा करने वाले ही जोवनमें अनन्त भेदोंको कायम रखना चाहते हैं । व्यवहारलोपका भय पग-पगपर दिखाते हैं। यदि दस्सा मंदिरमें आकर पूजा कर लेता है तो इन्हें व्यवहारलोपका भय व्याप्त हो जाता है। भाई, व्यवहारका विष दूर करना ही तो निश्चयका कार्य है। जब निश्चयके प्रसारका अवसर आता है तो क्यों व्यवहारलोपसे डरते हो ? कबतक इस हेय व्यवहारसे चिपटे रहोगे और धर्मके नामपर भी अहंकारका पोषण करते रहोगे ? अहंकारके लिए और क्षेत्र पड़े हुए हैं, उन कुक्षेत्रोंमें तो अहंकार कर ही रहे हो? बाह्य विभूतिके प्रदर्शनसे अन्य व्यवहारोंमें दूसरोंसे श्रेष्ठ बनने का अभिमान पुष्ट कर ही लेते हो, इस धर्मक्षेत्रको तो समताकी भूमि बनने दो । धर्मके क्षेत्रको तो धनके प्रभुत्वसे अछूता रहने दो । आखिर यह अहंकारको विषबेल कहाँ तक फैलाओगे ? आज विश्व इस अहंकारकी भीषण ज्वालाओंमें भस्मसात् हुआ जा रहा है। गोरे कालेका अहंकार, हिन्द मुसलमानका अहंकार, धनी निर्धनका अहंकार, सत्ताका अहंकार, ऊँच-नीचका अहंकार, छत-अछुतका अहंकार आदि इस सहस्रजिह व अहंकारनागकी नागदमनी औषधि निश्चय दृष्टि ही है। यह आत्ममात्रको समभूमिपर लाकर उसकी आँखें खोलती हैं किदेखो, मलमें तुम सब कहाँ भिन्न हो? और अन्तिम लक्ष्य भी तुम्हारा वही समस्वरूपस्थिति प्राप्त करना है। तब क्यों बीचके पडावोंमें अहंकारका सर्जन करके उच्चत्वको मिथ्या प्रतिष्ठाके लिए एक दसरेके खनके प्यासे हो रहे हो? धर्मका क्षेत्र तो कमसे कम ऐसा रहने दो जहाँ तुम्हें स्वयं अपनी मूलदशाका भान हो और दूसरे भी उसी समदशाका भान कर सकें । “सम्मोलने नयनयोः न हि किंचिदस्ति"-आँख मदजाने पर यह सब भेद तुम्हारे लिए कुछ नहीं है। परलोकमें तुम्हारे साथ वह अहंकारविष तो चला जायगा पर यह जो भेदसृष्टि कर जाओगे उसका पाप मानवसमाजको भोगना पड़ेगा। यह मूढ़ मानव अपने पुराने पुरुषों द्वारा किये गये पापको भी बापके नामपर पोषता रहना चाहता है । अतः मानवसमाजकी हितकामनासे भी निश्चयदष्टि-आत्मसमत्वकी दृष्टि को ग्रहण करो और पराश्रित व्यवहारको नष्ट करके स्वयं शान्तिलाभ करो और दूसरोंको उसका मार्ग निष्कंटक कर दो। ___ समयसारका सार यही है । कुन्दकुन्दकी आत्मा समयसारके गुणगानसे, उसके ऊपर अर्ध चढ़ानेसे, उसे चांदी सोने में मढ़ानेसे सन्तुष्ट नहीं हो सकती। वह तो समयसारको जोवन में उतारनेसे ही प्रसन्न हो सकती है । यह जातिगत ऊँचनीच भाव, यह धर्मस्थानोंमें किसीका अधिकार किसीका अनधिकार इन सब विषोंका समयसारके अमृतके साथ क्या मेल ? यह निश्चयमिथ्यात्वी निश्चयको उपादेय और भतार्थ तो कहेगा पर जीवन में निश्चयकी उपेक्षाके हो कार्य करेगा, उसकी जड़ खोदने का ही प्रयास करेगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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