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________________ २२० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ अपरमार्थता पर विचार करनेसे तो अध्यात्मशास्त्र में पूर्णज्ञानका पर्यवसान अन्ततः आत्मज्ञान में ही होता है । अतः सर्वज्ञत्वकी दलीलका अध्यात्मचिन्तनमूलक पदार्थव्यवस्था में उपयोग करना उचित नहीं है । समग्र और अप्रतिबद्ध कारण ही हेतु - अकलंकदेवने उस कारण को हेतु स्वीकार किया है जिसके द्वितीयक्षण में नियमसे कार्य उत्पन्न हो जाय । उसमें भी यह शर्त है कि जब उसकी शक्ति में कोई प्रतिबन्ध उपस्थित न हो तथा सामग्रयान्तर्गत अन्य कारणोंकी विकलंता न हो । जैसे अग्नि धूमकी उत्पत्ति में अनुकूल कारण है पर यह तभी कारण हो सकती है जब इसकी शक्ति किसी मन्त्र आदि प्रतिबन्धकने न रोकी हो तथा धूमोत्पादक सामग्री- गीला ईंधन आदि पूरे रूपसे विद्यमान हो। यदि कारणका अमुक कार्यरूप में परिणमन नियत हो तो प्रत्येक कारण को हेतु बनाया जा सकता था। पर कारण तबतक कार्य उत्पन्न नहीं कर सकता जब तक उसकी सामग्री पूर्ण न हो और शक्ति अप्रतिबद्ध न हो। इसका स्पष्ट अर्थ है कि शक्तिकी अप्रतिबद्धता और सामग्री की पूर्णता जबतक नहीं होगी तबतक अमुक अनुकूल भी कारण अपना अमुक परिणमन नहीं कर सकता। अग्निमें यदि गीला ईंधन डाला जाय तो ही धूम उत्पन्न होगा अन्यथा वह धीरे-धीरे राख बन जायगी । यह बिल्कुल निश्चित नहीं हैं कि उसे उस समय राख बनना ही है या धूम पैदा करना ही है। यह तो अनुकूल सामग्री जुटाने की बात है । जिस परिणमनकी सामग्री जुटेगी वही परिणमन उसका होगा । निश्चय और व्यवहार का सम्यग्दर्शन " यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः " अर्थात् भावशून्य क्रियाएँ सफल नहीं होतीं । यह भाव क्या है जिसके बिना समस्त क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं ? यह भाव है निश्चयदृष्टि । निश्चयनय परनिरपेक्ष आत्मस्वरूपको कहता है । परमवीतरागता पर उसकी दृष्टि रहती है । जो क्रियाएँ इस परमवीतरागता की साधक और पोषक वे ही सफल हैं । पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें बताया है कि "निश्वयमिह भूतार्थं व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् ।" अर्थात् निश्चयनय भूतार्थ है और व्यवहारनय अभूतार्थं । इस भूतार्थता और अभूतार्थताका क्या अर्थ है ? 'जब आत्मामें इस समय राग, द्वेष, मोह आदि भाव उत्पन्न हो रहे हैं, आत्मा इन भावों रूपसे परिणमन कर रहा है, तब परनिरपेक्ष सिद्धवत् स्वरूप के दर्शन उसमें कैसे किए जा सकते हैं ?' यह शंका व्यवहार्य है, और इसका समाधान भी सीधा और स्पष्ट है कि --- प्रत्येक आत्मामें सिद्धके समान अनन्त चैतन्य है, एक भी अविभाग प्रतिच्छेदकी न्यूनता किसी आत्माके चैतन्यमें नहीं है । सबकी आत्मा असंख्यातप्रदेशवाली है, अखण्ड द्रव्य है । मूल द्रव्यदृष्टिसे सभी आत्माओं की स्थिति एक प्रकारकी है । विभाव परिणमनके कारण गुणोंके विकासमें न्यूनाधिकता आ गई है । संसारी आत्माएँ विभाव पर्यायों को धारण कर नानारूपमें परिणत हो रही हैं। इस परिणमनमें मूल द्रव्यकी स्थिति जितनी सत्य और भूतार्थ है उतनी ही उसकी विभावपरिणतिरूप व्यवहार स्थिति भी सत्य और भूतार्थ है । पदार्थपरिणमनकी दृष्टिसे निश्चय और व्यवहार दोनों भूतार्थं और सत्य हैं । निश्चय जहाँ मूल द्रव्यस्वभावको विषय करता है, वहाँ व्यवहार परसापेक्ष पर्यायको विषय करता है, निर्विषय कोई नहीं है । व्यवहारकी अभूतार्थता इतनी ही है कि वह जिन विभाव पर्यायोंको विषय करता है वे विभाव पर्याएँ हेय हैं, उपादेय नहीं, शुद्ध द्रव्यस्वरूप उपादेय है, यही निश्चयकी भूतार्थता है । जिस प्रकार निश्चय द्रव्यके मूल स्वभावको विषय करता है उसी प्रकार शुद्ध सिद्ध पर्याय भी निश्चय का विषय है । तात्पर्य यह कि परनिरपेक्ष द्रव्य स्वरूप और परनिरपेक्ष पर्याएँ निश्चयका विषय हैं और परसापेक्ष परिणमन व्यवहार के विषय हैं । व्यवहारकी अभूतार्थता है जहाँ आत्मा कहता है कि "मैं राजा हूँ, मैं विद्वान् हूं, मैं स्वस्थ हूं, मैं ऊँच हूँ, यह नीच है, मेरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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