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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : २१३ जैनदेव, जैनशास्त्र और जैनगुरुकी श्रद्धाके पीछे भी वही आत्मसमानाधिकारकी बात है। जैनदेव परम वीतरागताके प्रतीक है । उस वीतरागता और आत्ममात्रत्वके प्रति सम्पूर्ण निष्ठा रखे बिना शास्त्र और गुरुभक्ति भी अधूरी है। अतः जैनदेव शास्त्र और गुरुकी श्रद्धाका वास्तविक अर्थ किसी व्यक्तिविशेषकी श्रद्धा न होकर उन गुणोंके प्रति अटूट श्रद्धा है जिन गुणोंके वे प्रतीक हैं। ___ आत्मा और पदार्थोंका विवेकज्ञान भी उसी आत्मदर्शनकी ओर इशारा करता है । इसी तरह तत्त्वार्थश्रद्धानमें उन्हीं आत्माको बन्ध करनेवाले और आत्माकी मुक्तिमें कारणभूत तत्त्वोंकी श्रद्धा ही अपेक्षित है । इस विवेचनसे स्पष्ट हो जाता है कि सम्यग्दर्शन आत्मस्वरूपदर्शन और आत्माधिकारका परिज्ञान तथा उसके प्रति अटूट जीवन्त श्रद्धारूप ही है। सम्यग्द्रष्टाके जीवनमें परिग्रहसंग्रह और हिंसाका कोई स्थान नहीं रह सकता। वह तो मात्र अपनी आत्मापर ही अपना अधिकार समझकर जितनी दूसरी आत्माओंको या अन्य जड़द्रव्योंको अधीन करनेकी चेष्टाएँ हैं उन सभीको अधर्म ही मानता है। इस तरह यदि प्रत्येक मानवको यह आत्मस्वरूप और आत्माधिकारका परिज्ञान हो जाय और वह जीवनमें इसके प्रति निष्ठावान हो जाय तो संसारमें परम शान्ति और सहयोगका साम्राज्य स्थापित हो सकता है। सम्यग्दर्शनके इस अन्तरस्वरूपकी जगह आज बाहरी पूजा-पाठने ले ली है। अमुक पद्धतिसे पूजन और अमुक प्रकारकी द्रव्यसे पूजा आज सम्यक्त्व समझी जाती है। जो महावीर और पद्मप्रभ वीतरागताके प्रतीक थे, आज उनकी पूजा व्यापारलाभ, पुत्रप्राप्ति, भूतबाधाशान्ति जैसी क्षुद्र कामनाओंकी पूर्तिके लिए ही की जाने लगी है। इतना ही नहीं, इन तीर्थंकरोंका 'सच्चा दरबार' कहलाता है। इनके मन्दिरोंमें शासनदेवता स्थापित हुए हैं और उनकी पूजा और भक्तिने हो मुख्य स्थान प्राप्त कर लिया है। और यह सब हो रहा है सम्यग्दर्शनके पवित्र नामपर । जिस सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न चाण्डालको स्वामी समन्तभद्रने देवके समान बताया उसी सम्यग्दर्शनकी ओटमें और शास्त्रोंकी ओटमें जातिगत उच्चत्व नीचत्वके भावका प्रचार किया जा रहा है। जिस बाह्यपदार्थाश्रित या शरीराश्रित भावोंके विनाशके लिए आत्मदर्शनरूप सम्यग्दर्शनका उपदेश दिया गया था उन्हीं शरीराश्रित पिण्डशुद्धि आदिके नामपर ब्राह्मणधर्मकी वर्णाश्रमव्यवस्थाको चिपटाया जा रहा है। इस तरह जबतक हमें सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं होगा तबतक न जाने क्या-क्या अलाय-बलाय उसके पवित्र नामसे मानवजातिका पतन करती रहेगी। अतः आत्मस्वरूप और आत्माधिकारको मर्यादाको पोषण करनेवाली धारा ही सम्यग्दर्शन है अन्य नहीं । यही धर्म है । जिस प्रकार मिथ्यादर्शन दो प्रकारका उसी प्रकार सम्यग्दर्शनके भी निसर्गज-अर्थात बुद्धिपूर्वक प्रयत्नके बिना अनायास प्राप्त होनेवाला और अधिगमज अर्थात् बुद्धिपूर्वक-परोपदेशसे सीखा हुआ, इस प्रकार दो भेद हैं। जन्मान्तरसे आये हुए सम्यग्दर्शन संस्कारका निसर्गजमें ही समावेश है । अतः जबतक माँ बाप, शिक्षक, समाजके नेता, धर्मगुरु और धर्मप्रचारक आदिको सम्यग्दर्शनका सम्यग्दर्शन न होगा तबतक ये अनेक निरर्थक क्रियाकाण्डों और विचारशून्य रूढ़ियोंकी शराब धर्म और सम्यग्दर्शनके नामपर नतनपीढीको पिलाते जायँगे और निसर्गमिथ्यादष्टियोंकी सृष्टि करते जायेंगे । अतः नई पीढ़ीके सुधारके लिए व्यक्ति को सम्यग्दर्शन प्राप्त करना होगा। हमें उस मूलभूत तत्त्व-आत्मस्वरूप और आत्माधिकारको इन नेताओंको समझाना होगा और इनसे करबद्ध प्रार्थना करनी होगी कि इन कच्चे बच्चोंपर दया करो, इन्हें सम्यग्दर्शन और धर्मके नामपर बाह्यगत उच्चत्वनीचत्व शरीराश्रित पिण्डशुद्धि आदिमें न उलझाओ, थोड़ा-थोड़ा आत्मदर्शन करने दो। परम्परागत रूढ़ियोंको धर्मका जामा मत पहिनाओ। बद्धि और विवेकको जाग्रत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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