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________________ २१२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थं है। जैन तत्त्वज्ञान तो यह कहता है कि जिस प्रकार अपने स्वरूपसे च्युत होना अधर्म है उसी प्रकार दूसरेको स्वरूपसे च्युत करना भी अधर्म है । स्वयं क्रोध करके शान्तस्वरूपसे च्युत होना जितना अधर्म है उतना ही दूसरे के शान्तस्वरूप में विघ्न करके उसे स्वरूपच्युत करना भी अधर्म है । अतः ऐसी प्रत्येक विचारधारा, वचनप्रयोग और शारीरिक प्रवृत्ति अधर्म है जो अपनेको स्वरूपच्युत करती हो या दूसरेकी स्वरूपच्युतिका कारण होती हो । आत्माके स्वरूपच्युत होनेका मुख्य कारण है— स्वरूप और स्वाधिकारकी मर्यादाका अज्ञान । संसारमें अनन्त अचेतन और अनन्त चेतन द्रव्य अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं । प्रत्येक अपने स्वरूप में परिपूर्ण है । इन सबका परिणमन मूलतः अपने उपादान के अनुसार होकर भी दूसरे के निमित्तसे प्रभावित होता है । अनन्त अचेतन द्रव्योंका यद्यपि संयोगोंके आधारसे स्वरसतः परिणमन होता रहता है । पर जड़ होने के कारण उनमें बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती। जैसी जैसी सामग्री जुटती जाती है वैसा-वैसा उनका परिणमन होता रहता है। मिट्टी में यदि विष पड़ जाय तो उसका विषरूप परिणमन हो जायगा यदि क्षार पड़ जाय तो खारा परिणमन हो जायगा । चेतन द्रव्य ही ऐसे हैं जिनमें बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति होती है । ये अपनी प्रवृत्ति तो बुद्धिपूर्वक करते ही हैं साथ ही साथ अपनी बुद्धिके अनधिकार उपयोगके कारण दूसरे द्रव्योंको अपने अधीन करने की कुचेष्टा भी करते हैं । यह सही है कि जबतक आत्मा अशुद्ध या शरीर परतन्त्र है तब तक उसे परपदार्थोंकी आवश्यकता होगी और वह परपदार्थोंके बिना जीवित भी नहीं रह सकता । पर इस अनिवार्य स्थितिमें भी उसे यह सम्यक्दर्शन तो होना ही चाहिए कि - 'यद्यपि आज मेरी अशुद्ध दशा में शरीरादिके परतन्त्र होने के कारण नितान्त परवश स्थिति है और इसके लिए यत्किचित् परसंग्रह आवश्यक है पर मेरा निसर्गतः परद्रव्योंपर कोई अधिकार नहीं है, प्रत्येक द्रव्य अपना-अपना स्वामी है ।" इस परम व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी उद्घोषणा जैनतत्त्वज्ञानियोंने अत्यन्त निर्भयतासे की है । और इसके पीछे हजारों राजकुमार राजपाट छोड़कर इस व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी उपासनामें लगते आए हैं । यही सम्यग्दर्शनकी ज्योति है । प्रत्येक आत्मा अपनी तरह जगत् में विद्यमान अनन्त आत्माओं का भी यदि समान आत्माधिकार स्वीकार कर ले और अचेतन द्रव्योंके संग्रह या परिग्रहको पाप और अनधिकार चेष्टा मान ले तो जगत् में युद्ध संघर्ष हिंसा द्वेष आदि क्यों हों ? आत्मा के स्वरूपच्युत होनेका मुख्य कारण है पर संग्रहाभिलाषा और परपरिग्रहेच्छा । प्रत्येक मिथ्यादर्शी आत्मा यह चाहता है कि संसारके समस्त जीवधारी उसके इशारेपर चलें, उसके अधीन रहें, उसकी उच्चता स्वीकार करें। इसी व्यक्तिगत अनधिकार चेष्टाके फलस्वरूप जगत् में जाति वर्ण रंग आदिप्रयुक्त वैषम्यकी सृष्टि हुई है । एक जातिमें उच्चत्वका अभिमान होनेपर उसने दूसरी जातियोंको नीचा रखनेका प्रयत्न किया । मानवजातिके काफी बड़े भागको अस्पृश्य घोषित किया गया । गौररंगवालोंकी शासक जाति बनी। इस जाति वर्ण और रंगके आधारसे गुट बने और इन गिरोहोंने अपने वर्गकी उच्चता और लिप्साकी पुष्टिके लिए दूसरे मनुष्योंपर अवर्णनीय अत्याचार किए। स्त्रीमात्र भोगकी वस्तु रही । स्त्री और शूद्रका दर्जा अत्यन्त पतित समझा गया। जैन तीर्थंकरोंने इन अनधिकार चेष्टाको मिथ्यादर्शन कहा और बताया कि इस अनधिकार चेष्टाको समाप्त किये बिना सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति नहीं हो सकती । अतः मूलतः सम्यग्दर्शन- आत्मस्वरूपदर्शन और आत्माधिकारके ज्ञानमें ही परिसमाप्त है । शास्त्रोंमें इसका ही स्वानुभव, स्वानुभूति, स्वरूपानुभव जैसे शब्दोंसे वर्णन किया गया है। जैन परम्परामें सम्यक्दर्शन के विविधरूप पाए जाते हैं । १ - तत्त्वार्थश्रद्धान २ - जिनदेव शास्त्र गुरुका श्रद्धान ३ - आत्मा और परका भेदज्ञान आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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