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________________ २०८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ योगनिवृत्ति ही मूलतः संवरके पदपर प्रतिष्ठित हो सकती है। पर, मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको सर्वथा रोकना संभव नहीं है । शारीरिक आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिए आहार करना, मलमत्रका विसर्जन करना चलना फिरना, बोलना, रखना, उठाना आदि क्रियाएँ करनी ही पड़ती हैं। अतः जितने अंशोंमें मन, वचन, कायकी क्रियाओंका निरोध है उतने अंशको गुप्ति कहते हैं। गुप्ति अर्थात् रक्षा । मन, वचन और कायकी अकशल प्रवत्तियोंसे रक्षा करना। यह गप्ति ही संवरका प्रमख कारण है। गप्तिके अतिरिक्त समिति. धर्म अनप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र आदिसे संवर होता है। समिति आदिमें जितना निवत्तिका भाग है उतना संवरका कारण होता है और प्रवृत्तिका अंश शुभबन्धका हेतु होता है। समिति-सम्यक् प्रवृत्ति, सावधानीसे कार्य करना। ईर्या समिति-देखकर चलना । भाषा समितिहित मित प्रिय वचन बोलना । एषणा समिति-विधिपूर्वक निर्दोष आहार लेना । आदान-निक्षेपण समितिदेख शोधकर किसी भी वस्तुका रखना उठाना । उत्सर्ग समिति-निर्जन्तु स्थानपर मलमूत्रका विसर्जन करना। धर्म-आत्मस्वरूपमें धारण करानेवाले विचार और प्रवृत्तियां धर्म हैं । उत्तम क्षमा-क्रोधका त्याग करना । क्रोधके कारण उपस्थित होनेपर भी विवेकवारिसे उन्हें शान्त करना । कायरता दोष है और क्षमा गण । जो क्षमा आत्मामें दीनता उत्पन्न करे वह धर्म नहीं। उत्तम मार्दव-मदता, कोमलता, विनयभाव, मानका त्याग । ज्ञान पूजा कुल जाति बल ऋद्धि तप और शरीर आदिकी किंचित विशिष्टताके कारण आत्मस्वरूपको न भूलना, इनका अहंकार न करना । अहंकार दोष है, स्वमान गुण है। उत्तम आर्जव-ऋजुता, सरलता, मन वचन कायमें कुटिलता न होकर सरलभाव होना। जो मनमें हो, तदनुसारी ही वचन और न व्यवहारका होना । मायाका त्याग-सरलता गुण है। भोंदूपन दोष है। उत्तम शौच-शुचिता, पवित्रता, निर्लोभ वृत्ति, प्रलोभनमें नहीं फंसना । लोभ कषायका त्यागकर मनमें पवित्रता लाना । शौच गुण है पर बाह्य सोला और चौकापन्थ आदिके कारण छू-छू करके दूसरोंसे घृणा करना दोष है। उत्तम सत्यप्रामाणिकता, विश्वास परिपालन, तथ्य स्पष्ट भाषण । सच बोलना धर्म है परन्तु परनिन्दाके लिए दूसरोंके दोषोंका ढिंढोरा पीटना दोष है । पर बाधाकारी सत्य भी दोष हो सकता है । उत्तम संयम-इन्द्रिय विजय, प्राणि रक्षण । पांचों इन्द्रियोंकी विषय प्रवृत्तिपर अंकुश रखना, निरर्गल प्रवृत्तिको रोकना, वश्येन्द्रिय होना। प्राणियोंकी रक्षाका ध्यान रखते हुए खान-पान जीवन व्यवहारको अहिंसाकी भूमिकापर चलाना । संयम गुण है पर भावशून्य बाह्य-क्रियाकाण्डमेंका अत्यधिक आग्रह दोष है । उत्तम तप-इच्छानिरोध । मनकी आशा तृष्णाओंको रोककर प्रायश्चित्त विनय वैयावृत्त्य ( सेवाभाव ) स्वाध्याय और व्युत्सर्ग (परिग्रहत्याग ) में चित्तवृत्ति लगाना । ध्यान-चित्तकी एकाग्रता। उपवास, एकाशन, रसत्याग, एकान्तसेवन, मौन, शरीरको सुकुमार न होने देना आदि बाह्यतप है। इच्छानिवृत्ति रूप तप गुण है और मात्र बाह्य कायक्लेश, पंचाग्नि तपना, हठयोगकी कठिन क्रियायें बालतप हैं। उत्तमत्याग-दान देना, त्यागकी भूमिकापर आना। शक्त्यनसार भखोंकों भोजन, रोगीको औषधि, अज्ञाननिवृत्तिके लिए ज्ञानके साधन जुटाना और प्राणिमात्रको अभय देना । समाज और देशके निर्माणके लिए तन धन आदि साधनोंका त्याग । लाभ पूजा नाम आदिके लिए किया जानेवाला दान उत्तम दान नहीं है। उत्तम आकिंचन्य-अकिञ्चनभाव, बाह्यपदार्थों में ममत्व भावका त्याग । धन-धान्य आदि बाह्यपररिग्रह तथा शरीरमें 'यह मेरा स्वरूप नहीं है, आत्माका धन तो उसका शुद्ध चैतन्यरूप है 'नास्तिमें किञ्चन'-मेरा कुछ महीं है आदि भावनाएँ आकिञ्चन्य हैं । कर्तव्यनिष्ठ रहकर भौतिकतासे दृष्टि हटाकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त करना। उत्तम ब्रह्मचर्य-ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूपमें विचरण करना । स्त्रीसुखसे विरक्त होकर समस्त शारीरिक मानसिक आत्मिक शक्तियोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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