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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : २०७ निर्मद भाव रूप अनुत्सेक, परका अपमान, हास परिहास न करना, मृदुभाषण आदि उच्चगोत्रके आस्रवके कारण होते हैं । अन्तराय — दूसरोंके दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न करना, दानकी निन्दा करना, देवद्रव्यका भक्षण, परवीर्यापहरण, धर्मोच्छेद, अधर्माचरण, परनिरोध, बन्धन, कर्णछेदन गुह्यछेदन, इन्द्रिय विनाश आदि विघ्नकारक विचार और क्रियाएँ अन्तराय कर्मका आस्रव कराती हैं । सारांश यह कि इन भावोंसे उन उन कर्मोंको स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध विशेष वैसे आयुके सिवाय अन्य सात कर्मोंका आस्रव न्यूनाधिक भावसे प्रतिसमय होता रहता है। आयुके त्रिभाग में होता है । मोक्ष - बन्धनमुक्तिको मोक्ष कहते हैं । बन्धके कारणोंका अभाव होनेपर तथा संचित कर्मों की निर्जरा होनेपर समस्त कर्मोंका सकल उच्छेद होना मोक्ष है । आत्माकी वैभाविकी शक्तिका संसार अवस्था में विभाव परिणमन हो रहा था । विभाव परिणमनके निमित्त हट जानेसे मोक्षदशामें उसका स्वभाव परिणमन हो जाता है । जो आत्माके गुण विकृत हो रहे थे वे ही स्वाभाविक दशामें आ जाते हैं । मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन बन जाता है, अज्ञान ज्ञान और अचारित्र चारित्र । तात्पर्य यह कि आत्माका सारा नक्शा ही बदल जाता है । जो आत्मा मिथ्यादर्शनादि रूपसे अनादिकालसे अशुद्धिका पुज बना हुआ था वही निर्मल निश्चल और अनन्त चैतन्यमय हो जाता है । उसका आगे सदा शुद्ध परिणमन ही होता है । वह चैतन्य निर्विकल्प है । वह निस्तरंग समुद्रकी तरह निर्विकल्प निश्चल और निर्मल है। न तो निर्वाण दशामें आत्माका अभाव होता है और न वह अचेतन ही हो जाता है । जब आत्मा एक स्वतन्त्र मौलिक द्रव्य है तब उसका अभाव हो ही नहीं सकता । उसमें परिवर्तन कितने ही हो जायँ पर अभाव नहीं हो सकता। किसीकी भी यह सामर्थ्य नहीं जो जगत् के किसी भी एक सत्का समूल उच्छेद कर सके । रूपसे होता है । आयुका आव बुद्ध से जब प्रश्न किया गया कि - 'मरनेके बाद तथागत होते हैं या नहीं तो उनने इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें डाल दिया था। यही कारण हुआ कि बुद्धके शिष्योंने निर्वाणके विषय में दो तरहकी कल्पनाएँ कर डाली । एक निर्वाण वह जिसमें चित्त सन्तति निरास्रव हो जाती है और दूसरा निर्वाण वह जिसमें दीपक के समान चित्त सन्तति भी बुझ जाती है अर्थात् उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है । रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार इन पाँच स्कन्ध रूप ही आत्माको माननेका यह सहज परिणाम था कि निर्वाण दशामें उसका अस्तित्व न रहे । आश्चर्य है कि बुद्ध निर्वाण और आत्माके परलोकगामित्वका निर्णय बताए बिना कही दुःख निवृत्तिके उपदेशके सर्वांगीण औचित्यका समर्थन करते रहे । यदि निर्वाण में चित्तसन्ततिका निरोध हो जाता है, वह दीपककी तरह बुझ जाती है अर्थात् अस्तित्वशून्य हो जाती है तो उच्छेदवाद के दोषसे बुद्ध कैसे बचे ? आत्मा नास्तित्वसे इनकार तो इसी भयसे करते थे कि यदि आत्माको नास्ति कहते हैं तो उच्छेदवादका प्रसंग आता है और अस्ति कहते हैं तो शाश्वतवादका प्रसंग आता । निर्वाणावस्था में उच्छेद मानने और मरणके बाद उच्छेद माननेमें तत्त्वदृष्टिसे कोई विशेष अन्तर नहीं है। बल्कि चार्वाकका सहज उच्छेद सबको सुकर क्या अयत्नसाध्य होनेसे सहज ग्राह्य होगा और बुद्धका निर्वाणोत्तर उच्छेद अनेक प्रकारके ब्रह्मचर्यवास ध्यान आदिसे साध्य होनेके कारण दुर्ग्राह्य होगा । अतः मोक्ष अवस्था में शुद्ध चित्त सन्ततिकी सत्ता मानना ही उचित है । मोक्षके कारण -१ संवर-संवर रोकनेको कहते हैं । सुरक्षाका नाम संवर है । जिन द्वारोंसे कर्मोंका आस्रव होता था उन द्वारोंका, निरोध कर देना संवर कहलाता है । आस्रवका मूल कारण योग है । अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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