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________________ १८८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थं संबंधी प्रश्न अनेकांशिक हैं अर्थात इनका उत्तर हाँ या न इनमेंसे किसी एकके द्वारा नहीं दिया जा सकता। कारण बुद्धने स्वयं बताया है कि यदि वही जीव वही शरीर कहते हैं तो उच्छेदवाद अर्थात् भौतिकवादका प्रसंग आता है जो बुद्धको इष्ट नहीं और यदि अन्य जीव और अन्य शरीर कहते हैं तो नित्य आत्मवादका प्रसंग आता है जो भी बुद्धको इष्ट नहीं था। बुद्धने प्रश्नव्याकरण चार प्रकारका बताया है-(१) एकाश (है या नहीं एकमें ) व्याकरण, प्रतिपृच्छाव्याकरणीय प्रश्न , विभज्य व्याकरणीय प्रश्न और स्थापनीय प्रश्न । जिन प्रश्नोंको बुद्धने अव्याकृत कहा है उन्हें अनेकांशिक भी कहा है अर्थात् उनका उत्तर एक है या नहीं में नहीं दिया जा सकता । फिर इन प्रश्नोंके बारेमें कुछ कहना सार्थक नहीं, भिक्षुचर्याके लिए उपयोगी नहीं और न निर्वेद, निरोध, शांति, परमज्ञान या निर्वाणके लिए आवश्यक है। .. इस तरह बुद्ध जब आत्मा, लोक और निर्वाणके सम्बन्धमें कुछ भी कहनेको अनुपयोगी बताते हैं तो उसका सीधा अर्थ यही ज्ञात होता है कि वे इन तत्त्वोंके सम्बन्धमें अपना निश्चित मत नहीं बना सके थे । शिष्योंके तत्त्वज्ञानके झगड़ेमें न डालनेकी बात तो इसलिए समझमें नहीं आती कि जब उस समयका प्रत्येक मतप्रचारक इनके विषयमें अपने मतका प्रतिपादन करता था, उसका समर्थन करता था, जगह-जगह इन्हीं के विषयमें वाद रोपे जाते थे, तब उस हवासे शिष्योंकी बुद्धिको अचलित रखना दुःशक ही नहीं अशक्य ही था। बल्कि इन अव्याकृत कोटिकी सृष्टि ही उन्हें बौद्धिक होनताका कारण बनती होगी। बुद्धका इन्हें अनेकांशिक कहना भी अर्थपूर्ण हो सकता है। अर्थात् वे एकान्त न मानकर अनेकाश मानते तो थे पर चूंकि निग्गंठनाथपुत्तने इस अनेकांशताका प्रतिपादन सियावाद अर्थात् स्याद्वादसे करना प्रारम्भ कर दिया था, अतः विलक्षणशैली स्थापनके लिए उनने इन्हें अव्याकृत कह दिया हो। अन्यथा अनेकांशिक और अनेकान्तवादमें कोई खास अन्तर नहीं मालम होता । यद्यपि संजयवेलठिपुत्त, बुद्ध और निग्गंठनाथपुत्त इन तीनोंका मत अनेकांशको लिए हुए है, पर संजय उन अनेक अंशोंके सम्बन्धमें स्पष्ट अनिश्चयवादी है । वह साफ-साफ कहता है कि "यदि मैं जानता होऊँ तो बताऊँ कि परलोक है या नहीं है आदि" | बुद्ध कहते हैं यह अव्याक त है। इस अव्याकृति और संजयकी अनिश्चि तिमें क्या सूक्ष्म अन्तर है सो तो बद्ध ही जानें, पर व्यवहारतः शिष्योंके पल्ले न तो संजय ही कुछ दे सके और न बुद्ध ही। बल्कि संजयके शिष्य अपना यह मत बना भी सके होंगे कि-इन आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका निश्चय नहीं हो सकता, किन्तु बुद्ध शिष्योंका इन पदार्थों के विषयमें बुद्धिभेद आज तक बना हुआ है। आज श्री राहल सांकृत्यायन बुद्धके मतको अभौतिक अनात्मवाद जैमा उभयप्रतिषेधी नाम देते हैं । इधर आत्मा शब्दसे नित्यत्वका डर है उधर भौतिक कहनेसे उच्छेदवादका भय है। किंतु यदि निर्वाणदशामें दीपनिर्वाणकी तरह चित्तसन्ततिका निरोध हो जाता है तो भौतिकवादसे क्या विशेषता रह जाती है ? चार्वाक हर एक जन्ममें आत्माकी भतोंसे उत्पत्ति मानकर उनका भतविलय मरणकालमें मान लेता है । बुद्धने इस चित्तसन्ततिको पंचस्कंधरूप मानकर उसका विलय हर एक मरणके समय न मानकर संसारके अन्त में माना। जिस प्रकार रूप एक मौलिक तत्त्व अनादि अनन्त धारारूप है उस प्रकार चित्तधारा न रही, अर्थात् चार्वाकका भौतिकत्व एक जन्मका है जब कि बुद्ध का भौतिकत्व एक संसारका । इस प्रकार बुद्ध तत्त्वज्ञानकी दिशामें संजय या भौतिकवादी अजितके विचारोंमेंही दोलान्दोलित रहे और अपनी इस दशामें भिक्षुओंको न डालनेकी शुभेच्छासे उनने इनका अव्याकत रूपसे उपदेश दिया। उनने शिष्योंको समझा दिया कि इस वाद-प्रतिवादसे निर्वाण नहीं मिलेगा, निर्वाणके लिए चार आर्यसत्योंका ज्ञान ही आवश्यक है। बुद्धने कहा कि दुःख, दुःखके कारण, दुःखनिरोध और दुःखनिरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्योंको जानो। इनके यथार्थ ज्ञानसे दुःखनिरोध होकर मक्ति हो जायगी। अन्य किसी ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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