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________________ ४ | विशिष्ट निबन्ध : १८७ ४-प्रवध कात्यायनका मत था-"यह सात काय ( समह ) अकृत-अकृतविध-अनिर्मित-निर्माणरहित, अबध्य-कूटस्थ, स्तम्भवत् ( अचल ) है। यह चल नहीं होते, विकारको प्राप्त नहीं होते; न एकदूसरेको हानि पहुंचाते हैं; न एक-दूसरेके सुख, दुःख या सुख-दुःखके लिए पर्याप्त है। कौनसे सात ? पृथिवीकाय, अपकाय, तेज काय, वायु-काय, सुख, दुःख और जीवन यह सात काय अकृत० सुख-दुःखके योग्य नहीं हैं । यहाँ न हन्ता ( -मारनेवाला ) है, न घातयिता ( -हनन करनेवाला), न सुननेवाला, न सुनानेवाला, न जाननेवाला, न जतलानेवाला। जो तीक्ष्ण शस्त्रसे शीश भी काटे ( तो भी) कोई किसोको प्राणसे नहीं । मारता । सातों कायोंसे अलग, विवर ( -खाली जगह ) में शस्त्र ( -हथियार ) गिरता है।" यह मत अन्योन्यवाद या शाश्वतवाद कहलाता था ।। ५-संजय वेला का मत था-"यदि आप पूछे. क्या परलोक है ? और यदि मैं समझं कि परलोक है, तो आपको बतलाऊँ कि परलोक है । मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता, मैं दूसरी तरहसे भी नहीं कहता, मैं यह भी नहीं कहता कि 'यह नहीं है', मैं यह भी नहीं कहता कि 'यह नहीं नहीं है ।' परलोक नहीं है । परलोक है भी और नहीं भी०, परलोक न है और न नहीं है । अयोनिज (-औपपातिक) प्राणी है। अयोनिज प्राणी नहीं हैं, हैं भी और नहीं भी, न हैं और न नहीं है । अच्छे बुरे काम के फल है, नहीं हैं, हैं भो और नहीं भी, न है और न नहीं है । तथागत मरनेके बाद होते है, नहीं होते है । यदि मुझे ऐसा पूछे और मैं ऐसा समझं कि मरने के बाद तथागत न रहते हैं और न नहीं रहते हैं तो मैं ऐसा आपको कहूँ । मैं ऐसा भी नहीं कहता, मैं वैसा भी नहीं कहता।" संजय स्पष्टतः संशयालु क्या घोर अनिश्चयवादी या आज्ञानिक था। उसे तत्त्वकी प्रचलित चतुकोटियोंमेंसे एकका भी निर्णय नहीं था। पालीपिटकमें इसे 'अमराविक्षेपवाद' नाम दिया है। भले ही हमलोगोंकी समझमें यह विक्षेपवादी ही हो पर संजय अपने अनिश्चयमें निश्चित था। ६-बुद्ध-अव्याकृतवादी थे । उनने इन दस बातोंको अव्याकृत' बतलाया है। १-लोक शाश्वत है ? २-लोक अशाश्वत है ? ३-लोक अन्तवान है? ४-लोक अनन्त है? ५-वही जीव वही शरीर है? ६-जीव अन्य और शरीर अन्य है ? ७-मरनेके बाद तथागत रहते हैं ? ८-मरनेके बाद तथागत नहीं रहते ? ९-मरने के बाद तथागत होते भी हैं नहीं भी होते ? १०-मरनेके बाद तथागत नहीं होते, नहीं नहीं होते ? इन प्रश्नोंमें लोक आत्मा और परलोक या निर्वाण इन तीन मुख्य विवादग्रस्त पदार्थोंको बुद्धने अव्याकत कहा। दीघनिकायके पोवादसूत्तमें इन्हीं प्रश्नोंको अव्याकत कहकर अनेकांशिक कहा है। जो व्याकरणीय हैं उन्हें 'ऐकांशिक' अर्थात् एक सुनिश्चितरूपमें जिनका उत्तर हो सकता है कहा है। जैसे दुःख आर्यसत्य है हो ? उसका उत्तर हो 'है ही' इस एक अंशरूपमें दिया जा सकता है। परन्तु लोक आत्मा और निर्वाण १. "सस्सतों लोको इतिपि, असस्सतो लोको इतिपि, अन्तवा लोको इतिपि, अनन्तवा लोको इतिपि, तं जीवं त सरीरं इतिपि, अझं जीवं अझं सरीर इतिपि, होत्ति तथागतो परम्मरणा इतिपि, होतिच न च होति च तथागतो पम्मरणा इतिपि, नेव होति न नहोति तथागतो परम्भरणा इतिपि।"-मज्झिमनि० चूलमालुक्यसुत्त । २. "कतमे च ते पोट्टपाद मया अनेकसिका धम्मा देसिता पञत्ता ? सस्सतो लोको ति वा पोटुपाद मया अनेकसिको धम्मो देसितो पञ्जतो । असस्सतो लोको ति खो पोट्ठपाद मया अनेकसिको.."-दीघनिक पोठ्ठपादसुत्त । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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