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________________ १६८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ गया है । हलेबेल्गोलके एक शिलालेख ( नं० ४९२, जैन शिलालेखसंग्रह ) में होय्सलनरेश एरेयङ्ग द्वारा गोपनन्दि पण्डितदेवको दिए गए दानका उल्लेख है । यह दान पौष शुद्ध १३, संवत् १०१५ में दिया गया था । इस तरह सन् १०९४ में प्रभाचन्द्र के सधर्मा गोपनन्दिकी स्थिति होनेसे प्रभाचन्द्रका समय सन् १०६५ तक माननेका पूर्ण समर्थन होता है । समयविचार - आचार्य प्रभाचन्द्र के समय के विषयमें डॉ० पाठक, प्रेमीजी " तथा मुख्तार सा० आदिका प्रायः सर्वसम्मत मत यह रहा है कि आचार्य प्रभाचन्द्र ईसाको ८वीं शताब्दी के उत्तरार्ध एवं नवीं शताब्दो के पूर्वार्धवर्ती विद्वान् थे । और इसका मुख्य आधार है जिनसेनकृत आदिपुराणका यह श्लोक - “चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं स्तुवे । जगत् ॥” अर्थात् - ' जिनका यश चन्द्रमाकी किरणोंके समान धवल है उन प्रभाचन्द्रकविकी स्तुति करता हूँ । जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना करके जगत्को आह्लादित किया था।' इस श्लोक में चन्द्रोदयसे न्यायकुमुदचन्द्रोदय ( न्यायकुमुदचन्द्र ) ग्रन्थका सूचन समझ गया है। आ० जिनसेनने अपने गुरु वीरसेनकी अधूरी जयधवला टीकाको शक सं० ७५९ ( ईसवी ८३७ ) की फाल्गुन शुक्ला दशमी तिथिको पूर्ण किया था । इस समय अमोघवर्षका राज्य था । जयधवलाकी समाप्तिके अनन्तर ही आ० जिनसेनने आदिपुराणकी रचना की थी। आदिपुराण जिनसेनकी अन्तिम कृति है । वे इसे अपने जीवन में पूर्ण नहीं कर सके थे । उसे इनके शिष्य गुणभद्र ने पूर्ण किया था । तात्पर्य यह कि जिनसेन आचार्यने ईसवी ८४० के लगभग आदिपुराणकी रचना प्रारम्भ की होगी। इसमें प्रभाचन्द्र तथा उनके न्यायकुमुदचन्द्र का उल्लेख मानकर डॉ० पाठक आदिने निर्विवाद रूप से प्रभाचन्द्रका समय ईसाकी ८वीं शताब्दीका उत्तरार्ध तथा नवींका पूर्वार्ध निश्चित किया है । सुहृद्वर पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभागकी प्रस्तावना ( पृ० १२३ ) में डॉ. पाठक आदि मतका निरास करते हुए प्रभाचन्द्रका समय ई० ९५० से १०२० तक निर्धारित किया है । इस निर्धारित समयकी शताब्दियाँ तो ठीक हैं पर दशकों में अन्तर है । तथा जिन आधारोंसे यह समय १. श्रीमान् प्रेमीजीका विचार अब बदल गया है । अपने "श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र" लेख ( अनेकान्त वर्ष ४ अंक, १) में महापुराण टिप्पणकार प्रभाचन्द्र तथा प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और गद्यकथाकोश आदिके कर्त्ता प्रभाचन्द्रका एक ही व्यक्ति होना सूचित करते हैं । वे अपने एक पत्र में मुझे लिखते हैं कि हम समझते हैं कि प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के कर्त्ता प्रभाचन्द्र ही महापुराण टिप्पणके कर्त्ता हैं । और तत्त्वार्थवृत्तिपद ( सर्वार्थसिद्धि के पदोंका प्रकटीकरण ), समाधितं त्रटीका, आत्मानुशासन तिलक, क्रियाकलापटीका, प्रवचनसारस रोजभास्कर ( प्रवचनसारकी टीका) आदिके कर्ता, और शायद रत्नकरण्डटीका कर्ता भी वही हैं ।" २. पं० कैलाशचन्द्रजीने आदिपुराणके 'चन्द्रांशुशुभ्रयशसं' श्लोक में चन्द्रोदयकार किसी अन्य प्रभाचन्द्रक विका उल्लेख बताया है, जो ठीक है । पर उन्होंने आदिपुराणकार जिनसेनके द्वारा न्यायकुमुदचन्द्रकार प्रभाचन्द्रके स्मृत होने में बाधक जो अन्य तीन हेतु दिए हैं वे बलवत् नहीं मालूम होते । यत: (१) आदिपुराणकार इसके लिए बाध्य नहीं माने जा सकते कि यदि वे प्रभाचन्द्रका स्मरण करते हैं तो उन्हें प्रभाचन्द्र के द्वारा स्मृत अनन्तवीर्यं और विद्यानन्दका स्मरण करना ही चाहिए । विद्यानन्द और अनन्तवीर्यंका समय ईसाकी नवीं शताब्दीका पूर्वार्ध है, और इसलिए वे आदिपुराणकारके समकालीन होते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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