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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ९७ तो वे परमसंग्रहन के दृष्टिकोणमें देख सकते हैं, पर वह केवल कल्पना ही होगी, वस्तुस्थिति नहीं । पूर्णसत्य तो वस्तुका अनेकान्तात्मक रूपसे दर्शन ही है, न कि काल्पनिक अभेदका दर्शन । इसी तरह प्रो० बलदेव उपाध्याय इस स्याद्वादसे प्रभावित होकर भी सर राधाकृष्णन्का अनुसरणकर स्याद्वादको मूलभूततत्त्व ( एक ब्रह्म ?) के स्वरूप के समझने में नितान्त असमर्थं बतानेका साहस करते हैं । इनने तो यहाँ तक लिख दिया है कि - ' इसी कारण यह व्यवहार तथा परमार्थके बीचोबीच तत्त्वविचारको कतिपय क्षणके लिए विस्रम्भ तथा विराम देनेवाले विश्रामगृहसे बढ़कर अधिक महत्त्व नहीं रखता ।” ( भारतीय दर्शन, पृ० १७३ ) । आप चाहते हैं कि प्रत्येक दर्शनको उस काल्पनिक अभेद तक पहुँचना चाहिए । पर स्याद्वाद जब वस्तुविचार कर रहा है तब वह परमार्थ सत् वस्तुकी सीमाको कैसे लाँघ सकता है ? ब्रह्मकवाद न केवल युक्तिविरुद्ध ही है पर आजके विज्ञानसे उसके एकीकरणका कोई वास्तविक मूल्य सिद्ध नहीं होता | विज्ञानने एटम तकका विश्लेषण किया है और प्रत्येककी अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की है । अतः यदि स्याद्वाद वस्तुकी अनेकान्तात्मक सीमापर पहुँचाकर बुद्धिको विराम देता है तो यह उसका भूषण ही है। दिमागी अभेदसे वास्तविक स्थितिकी उपेक्षा करना मनोरञ्जन से अधिक महत्त्वको बात नहीं हो सकती । इसी तरह श्रीयुत् हनुमन्तराव एम. ए. ने अपने "Jain Instrumental theory of Knowledge” नामक लेखमें लिखा है कि--" स्याद्वाद सरल समझौतेका मार्ग उपस्थित करता है, वह पूर्ण सत्य तक नहीं ले जाता ।" आदि। ये सब एक ही प्रकारके विचार हैं जो स्याद्वादके स्वरूपको न समझने के या वस्तुस्थितिकी उपेक्षा करनेके परिणाम हैं। मैं पहिले लिख चुका हूँ कि महावीरने देखा कि--वस्तु तो अपने स्थानपर अपने विराट् रूपमें प्रतिष्ठित है, उसमें अनन्त धर्म, जो हमें परस्पर विरोधी मालूम होते हैं, अविरुद्ध भावसे विद्यमान हैं, पर हमारी दृष्टिमें विरोध होनेसे हम उसकी यथार्थ स्थितिको नहीं समझ पा रहे हैं । जैनदर्शन वास्तव बहुत्ववादी है । वह दो पृथक्सत्ताक वस्तुओंको व्यवहारके लिए कल्पनासे अभिन्न कह भी दे, पर वस्तुकी निजी मर्यादाका उल्लंघन नहीं करना चाहता । जैनदर्शन एक व्यक्तिका अपने गुण-पर्यायों से वास्तविक अभेद तो मानता है, पर दो व्यक्तियों में अवास्तविक अभेदको नहीं मानता । इस दर्शनकी यही विशेषता है, जो यह परमार्थ सत् वस्तुकी परिधिको न लाँघकर उसकी सोमामें ही विचार करता है और मनुष्यों को कल्पनाको उड़ानसे विरतकर वस्तुकी ओर देखने को बाध्य करता है । जिस चरम अभेद तक न पहुँचने के कारण अनेकान्त दर्शनको सर राधाकृष्णन्-जैसे विचारक अर्धसत्योंका समुदाय कहते हैं उस चरम अभेदको भो अनेकान्त दर्शन एक व्यक्तिका एक धर्म मानता है । वह उन अभेदकल्पकोंको कहता है कि वस्तु इससे भी बड़ी है, अभेद तो उसका एक धर्म है । दृष्टिको और उदार तथा विशाल करके वस्तु पूर्ण रूपको देखो, उसमें अभेद एक कोने में पड़ा होगा और अभेदके अनन्तों भाई-बन्धु उसमें तादात्म्य हो रहे होंगे । अतः इन ज्ञानलवधारियोंको उदारदृष्टि देनेवाले तथा वस्तुकी झाँकी दिखानेवाले अनेकान्तदर्शनने वास्तविक विचारकी अन्तिम रेखा खींची है, और यह सब हुआ है मानस-समतामूलक तस्वज्ञानकी खोजसे । जब इस प्रकार वस्तुस्थिति ही अनेकान्तमयी या अनन्तधर्मात्मिका है तब सहज ही मनुष्य यह सोचने लगता कि दूसरा वादी जो कह रहा है उसकी सहानुभूतिसे समीक्षा होनी चाहिये और वस्तुस्थितिमूलक समीकरण होना चाहिये । इस स्वीयस्वल्पता और वस्तु-अनन्तधर्मंताके वातावरणसे निरर्थक कल्पनाओं का जाल टूटेगा और अहंकारका विनाश होकर मानससमताकी सृष्टि होगी । जो कि अहिंसाका संजीवन बीज है । इस तरह मानस-समता के लिए अनेकान्त दर्शन ही एकमात्र स्थिर आधार हो सकता है । जब अनेकान्त दर्शनसे विचारशुद्धि हो जाती है तब स्वभावतः वाणीमें नम्रता और परसमन्वयकी वृत्ति उत्पन्न ४-१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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