SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 279
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ सम्भव अनन्त धर्म चेतनमें मिलेंगे तथा अचेतनगत सम्भव धर्म अचेतनमें । चेतनके गुण-धर्म अचेतनमें नहीं पाये जा सकते और न अचेतनके चेतनमें । हाँ, कुछ ऐसे सामान्य धर्म भी हैं जो चेतन और अचेतन दोनों में साधारण रूपसे पाए जाते हैं । तात्पर्य यह कि वस्तुमें बहुत गुञ्जाइश है । वह इतनी विराट् है जो हमारे तुम्हारे अनन्त दृष्टिकोणोंसे देखी और जानी जा सकती है। एक क्षुद्र दृष्टिका आग्रह करके दूसरेकी दृष्टिका तिरस्कार करना या अपनी दृष्टिका अहंकार करना वस्तुके स्वरूपकी नासमझीका परिणाम है । हरिभद्रसूरिने लिखा है कि "आग्रही वत निनीपति युक्ति तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपात रहितस्य तु युक्तिर्यत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥” — लोकतत्त्वनिर्णय अर्थात् आग्रही व्यक्ति अपने मतपोषण के लिए युक्तियाँ ढूँढ़ता है, युक्तियों को अपने मतकी ओर ले जाता है, पर पक्षपातरहित मध्यस्थ व्यक्ति युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूपको स्वीकार करने में अपनी मतिकी सफलता मानता है । अनेकान्त दर्शन भी यही सिखाता है कि युक्तिसिद्ध वस्तुस्वरूपकी ओर अपने मतको लगाओ न कि अपने निश्चित मतकी ओर वस्तु और युक्तिकी खींचातानी करके उन्हें बिगाड़नेका दुष्प्रयास करो, और न कल्पनाकी उड़ान इतनी लम्बी लो जो वस्तुको सीमाको ही लाँघ जाय । तात्पर्य यह है कि मानससमता के लिए यह वस्तुस्थितिमूलक अनेकान्त तत्त्वज्ञान अत्यावश्यक है । इसके द्वारा इस नरतनधारीको ज्ञात हो सकेगा कि वह कितने पानी में है, उसका ज्ञान कितना स्वल्प है । और वह किस दुरभिमान से हिंसक मतवाद - का सर्जन करके मानवसमाजका अहित कर रहा है । इस मानस -अहिंसात्मक अनेकान्त दर्शनसे विचारों में या दृष्टिकोणों में कामचलाऊ समन्वय या ढीलाढाला समझौता नहीं होता, किन्तु वस्तुस्वरूपके आधार से यथार्थ तत्त्वज्ञानमूलक समन्वय दृष्टि प्राप्त होती है । डॉ० सर राधाकृष्णन् इण्डियन फिलासफी (जिल्द १, पृ० ३०५ - ६ ) में स्याद्वादके ऊपर अपने विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं कि - "इससे हमें केवल आपेक्षिक अथवा अर्धसत्यका ही ज्ञान हो सकता है, स्याद्वाद से हम पूर्ण सत्यको नहीं जान सकते । दूसरे शब्दों में — स्याद्वाद हमें अर्धसत्योंके पास लाकर पटक देता है और इन्हीं अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य मान लेनेकी प्रेरणा करता है । परन्तु केवल निश्चित अनिश्चित अर्धसत्योंको मिलाकर एक साथ रख देनेसे वह पूर्णसत्य नहीं कहा जा सकता।" आदि । क्या सर राधाकृष्णन् बतानेकी कृपा करेंगे कि स्याद्वादने निश्चित अनिश्चित अर्धसत्योंको पूर्ण सत्य मानने की प्रेरणा कैसे की है ? हाँ, वह वेदान्तकी तरह चेतन और अचेतनके काल्पनिक अभेदको दिमागी दौड़ में अवश्य शामिल नहीं हुआ । और न वह किसी ऐसे सिद्धान्तका समन्वय करनेकी सलाह देता है जिसमें वस्तुस्थितिकी उपेक्षा की गई हो । सर राधाकृष्णन्‌को पूर्णसत्य रूपसे वह काल्पनिक अभेद या ब्रह्म इष्ट है जिसमें चेतन-अचेतन मूर्त-अमूर्त सभी काल्पनिक रीतिसे समा जाते हैं । वे स्याद्वादकी समन्वयदृष्टिको अर्धसत्योंके पास लाकर पटकना समझते हैं, पर जब प्रत्येक वस्तु स्वरूपतः अनन्तधर्मात्मक है तब उस वास्तविक नतीजे पर पहुँचनेको अर्धसत्य कैसे कह सकते हैं ? हाँ, स्याद्वाद उस प्रमाणविरुद्ध काल्पनिक अभेदकी ओर वस्तुस्थितिमूलक दृष्टिसे नहीं जा सकता । वैसे, संग्रहनयकी एक चरम अभेदको कल्पना जैनदर्शनकारों ने भी की है और उस परम संग्रहनयकी अभेद दृष्टिसे बताया है कि - 'सर्वमेकं सदविशेषत्' अर्थात् जगत् एक है, सद्रूपसे चेतन और अचेतन में कोई भेद नहीं है । पर यह एक कल्पना है, क्योंकि ऐसा एक सत् नहीं है जो प्रत्येक मौलिक द्रव्यमें अनुगत रहता हो । अतः यदि सर राधाकृष्णन्‌को चरम अभेदको कल्पना ही देखनी हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy