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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ८१ मनोंकी वास्तविक स्थिति मानना चाहता है। वेदान्तीकी विरुद्ध-प्रतिभास वाली बात कदाचित समझमें आ भी जाय पर सांख्यकी विरुद्ध परिणमनोंकी वास्तविक स्थिति स्पष्टतः बाधित है। वेदान्तकी इस असङ्गतिका परिहार तो सांपने अनेक चेतन और जड़प्रकृति मानकर किया कि'अद्वैत ब्रह्म तत्त्वमें बद्ध और मुक्त चैतन्य जुदा-जुदा कैसे हो सकते हैं ? एक ही ब्रह्मतत्त्व चेतन और जड़ हो महाविरोधी परिणमनोंका आधार कैसे बन सकता है ? अनेक चेतन माननेसे कोई बद्ध और कोई मुक्त रह सकता है। जड़ प्रकृति माननेसे जड़ात्मक परिणमन प्रकृतिके हो सकते हैं? परन्तु एक अखण्डसत्ताक प्रकृति अमूर्त आकाश भी बन जाय और मूर्त घड़ा भी बन जाय । बुद्धि अहंकार भी बने और रूपरस भी बने, सो भी परमार्थतः; यह महान् विरोध सर्वथा अपरिहार्य है। एक सेर वजनके घड़ेको फोड़कर आधा-आधा सेरके दो वजनदार ठोस टुकड़े किये जाते हैं जो अपनी पृथक् ठोस सत्ता रखते हैं । यह विभाजन एकसत्ताक प्रकृतिमें कैसे हो सकता है । संसारके यावत् जड़ोंमें सत्त्व रजस्तमस इन तीन गुणोंका अन्वय देखकर एकजातीयता तो मानी जा सकती है, एकसत्ता नहीं । इस तरह सांख्यकी विश्वव्यवस्थामें अपरिहार्य असंगति बनी रहती है। न्यायवैशेषिकोंने जड़तत्त्वका पृथक्-पृथक् विभाजन किया । मूर्तद्रव्य जुदा माने, अमर्त जुदा । पृथिवी आदिके अनन्त परमाण स्वीकार किए। पर ये इतने भेदपर उतरे कि क्रिया गण सम्बन्ध परिणमनोंको भो स्वतन्त्र पदार्थ मानने लगे, यद्यपि गुण क्रिया सामान्य आदिकी पृथक् उपलब्धि नहीं होती और न ये पृथक् सिद्ध ही हैं । वैशेषिकको संप्रत्योपाध्याय कहा है। इसकी प्रकृति है-जितने प्रत्यय हों उतने पदार्थ स्वीकार कर लेना । 'गुणः गुणः प्रत्यय' हुआ तो गुण पदार्थ मान लिया । 'कर्म कर्म' प्रत्यय हुआ एक स्वतन्त्र कर्म पदार्थ माना गया। फिर इन पदार्थोंका द्रव्यके साथ सम्बन्ध स्थापितकरनेके लिए समवाय नामका स्वतन्त्र पदार्थ मानना पड़ा। जलमें गन्धकी, अग्निमें रसकी और वायुमें रूपकी अनुभूति देखकर पृथक् पृथक् द्रव्य माने । पर वस्तुतः वैशेषिकका प्रत्ययके आधारसे स्वतन्त्र पदार्थ माननेका सिद्धान्त ही गलत है। प्रत्ययके आधारसे उसके विषयभूत धर्म तो जुदा-जुदा किसी तरह माने जा सकते हैं, पर स्वतन्त्र पदार्थ मानना किसी तरह युक्तिसंगत नहीं है । इस तरह एक ओर वेदान्ती या सांख्यने क्रमशः जगत्में और प्रकृतिमें अभेदकी कल्पना की वहाँ वैशेषिकने आत्यन्तिक भेदको अपने दर्शनका आधार बनाया। उपनिषतमें जहाँ वस्तुके कूटस्थ नित्यत्वको स्वीकार किया गया है वहाँ अजित केशकम्बलि जैसे उच्छेदवादो भी विद्यमान थे । बुद्धने आत्माके मरणोतर जीवन और शरीरसे उसके भेदाभेदको अव्याकरणीय बताया है । बुद्धको डर था कि यदि हम आत्माके अस्तित्वको मानते हैं तो नित्यात्मवादका प्रसङ्ग आता है और यदि आत्माका नास्तित्व कहते हैं तो उच्छेदवादकी आपत्ति आती हैं। अतः उनने इन दोनों वादोंके डरसे उसे अव्याकरणीय कहा है। अन्यथा उनका सारा उपदेश भतवादके विरुद्ध आत्मवादकी भित्तिपर है ही। जैनदर्शन वास्तवमें बहुत्ववादी है। वह अनन्त चेतनतत्त्व, अनन्त पुद्गलद्रव्य-परमाणुरूप, एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य और असंख्य कालाणद्रव्य इसप्रकार अनन्त वास्तविक मौलिक अखण्ड द्रव्योंको स्वीकार करता है। द्रव्य सत्-स्वरूप है। प्रत्येक सत् चाहे वह चेतन हो या चेतनेतर परिणामीनित्य है। उसका पर्यायरूपसे परिणमन प्रतिक्षण होता ही रहता है। यह परिणमन अर्थपर्याय कहलाता है। अर्थपर्याय सदृश भी होती है और विसदृश भी। शुद्ध द्रव्योंकी अर्थपर्याय सदा एकसी सदृश होती हैं, पर होती है अवश्य । धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, आकाशद्रव्य, शुद्धजीवद्रव्य इनका परिणमन सदा सदृश होता है । पुद्गलका परिणमन सदृश भी होता है विसदृश भी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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