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________________ ८० : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थ अपने विश्वास अनुसार जिज्ञासुको सत्य साक्षात्कार या तत्त्व साक्षात्कारका पूरा भरोसा तो दिया पर तत्त्वज्ञानके स्थान में संशय ही उसके पल्ले पड़ा । जैनदर्शन की देन जैनदर्शन ने इस दिशा में उल्लेखयोग्य मार्ग - प्रदर्शन किया है। उसने श्रद्धाकी भूमिकापर जन्म लेकर भी वह वस्तुस्वरूपस्पर्शी विचार प्रस्तुत किया है जिससे वह श्रद्धाकी भूमिकासे निकलकर तत्त्वसाक्षात्कार के रङ्गमंचपर पहुँचा है। उसने बताया कि जगत्का प्रत्येक पदार्थ मूलतः एक रूपमें सत् है । प्रत्येक सत् पर्यायदृष्टिसे उत्पन्न विनष्ट होकर भी द्रव्यकी अनाद्यनन्त धारामें प्रवाहित रहता है अर्थात् न वह कूटस्थ नित्य है, न सातिशय नित्य न, अनित्य । किन्तु परिणामी नित्य है । जगत्के किसी सत्का विनाश नहीं हो सकता और न किसी असत्की उत्पत्ति । इस तरह स्वरूपतः पदार्थ उत्पाद, व्यय और धौव्यात्मक हैं । प्रत्येक पदार्थ नित्यअनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् जैसे अनेक विरोधी द्वन्द्वोंका अविरोधी आधार है। वह अनन्त शक्तियों का अखण्ड मौलिक है । उसका परिणमन प्रतिक्षण होता रहता है पर उसकी मूलधाराका प्रवाह न तो कहीं सूखता है और न किसी दूसरी धारामें विलीन ही होता है । जगत् में अनन्त चेतन द्रव्य, अनन्त अचेतन द्रव्य, एक धर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य, और असंख्यकालद्रव्य अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं । वे कभी एक दूसरे में विलीन नहीं हो सकते और अपना मूलद्रव्यत्व नहीं छोड़ सकते। प्रत्येक प्रतिक्षण परिणामी है । उसका परिणमन सदृश भी होता है विसदृश भी । द्रव्यान्तरसंक्रान्ति इनमें कदापि नहीं हो सकती । इस तरह प्रत्येक चेतन अचेतन द्रव्य अनन्त धर्मोका अखण्ड अविभागी मौलिक तत्त्व है । इसी अनेकान्त - अनन्तधर्मा पदार्थको प्रत्येक दार्शनिकने अपने-अपने दृष्टिकोण से देखनेका प्रयास किया है । कोई दार्शनिक वस्तुकी सीमाको भी अपनी कल्पनादृष्टिसे लाँघ गए हैं । यथा, वेदान्त दर्शन जगत् में एक ही सत् ब्रह्मका अस्तित्व मानता है । उसके मतसे अनेक सत् प्रातिभासिक हैं । एक सत्का चेतन-अचेतन, मूर्त-अमूर्त, निष्क्रिय सक्रिय आदि विरुद्ध रूपसे मायावश प्रतिभास होता रहता है । इसी प्रकार विज्ञानवाद या शून्यवादने बाह्य घटपटादि पदार्थोंका लोप करके उनके प्रतिभासको वासनाजन्य बताया है । जहाँ तक जैन दार्शनिकोंने जगत्का अवलोकन किया है वस्तुकी स्थितिको अनेकधर्मात्मक पाया, और इसीलिए अनेकान्तात्मक तत्त्वका उनने निरूपण किया । वस्तुके पूर्णरूपको अनिर्वचनीय वाङ्मानसागोचर या अवक्तव्य सभी दार्शनिकोंने कहा है । इसी वस्तुरूपको विभिन्न दृष्टिकोणोंसे जानने और कथन करनेका प्रयास भिन्न-भिन्न दार्शनिकोंने किया है । जैनदर्शनने वस्तुमात्रको परिणामी नित्य स्वीकार किया। कोई भी सत् पर्याय रूपसे उत्पन्न और विष्ट होकर भी द्रव्यरूपसे अविच्छिन्न रहता है, अपनी असङ्कीर्ण सत्ता रखता है । सांख्य दर्शनमें यह परिणामिनित्यता प्रकृति तक ही सीमित है । पुरुष तत्त्व इनके मत में कूटस्थ नित्य है । उसका विश्व-व्यवस्थामें कोई हाथ नहीं है । प्रकृति परिणामिनी होकर भी एक है । एक ही प्रकृतिका घटपटादि मूर्त रूपमें और आकाशादि अमूर्तरूपमें परिणमन होता है । यही प्रकृति बुद्धि अहङ्कार जैसे चेतन भावों रूपसे परिणत होती है और यही प्रकृति रूपरस गन्ध आदि जड़भाव रूपमें । परन्तु इस प्रकारके विरुद्ध परिणमन एक ही साथ एक ही तत्त्वमें कैसे सम्भव हैं ? यह तो हो सकता है कि संसार में जितने चेतनभिन्न पदार्थ हैं वे एक जातिके हों पर एक तो नहीं हो सकते । वेदान्तीने जहाँ चेतन-भिन्न कोई दूसरा तत्त्व स्वीकार न करके एक सत्का चेतन और अचेतन, मूर्त-अमूर्त निष्क्रिय सक्रिय, अन्तर-बाह्य आदि अनेकधा प्रतिभास माना और दृश्य जगत्की परमार्थं सत्ता न मानकर प्रातिभासिक सत्ता ही स्वीकार की वहाँ सांख्य चेतनतत्त्वको अनेक स्वतन्त्रसत्ताक मानकर भी, प्रकृतिको एक स्वीकार करता है और उसमें विरुद्ध परिण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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