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________________ ७८ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ प्रज्ञापनीय है उसका अनन्तवाँ भाग शब्द-श्रुतनिबद्ध होता है। अतः कदाचित् दर्शनप्रणेता ऋषियोंने वस्तुतत्त्वको अपने निर्मल ज्ञानसे अखण्डरूप जाना भी हो तो भी एक ही वस्तुके जाननेके भी दृष्टिकोण जुदे-जुदे हो सकते हैं । एक ही पुष्पको वैज्ञानिक, साहित्यिक, आयुर्वेदिक तथा जनसाधारण आँखोंसे समग्र भावसे देखते हैं पर वैज्ञानिक उसके सौन्दर्यपर मुग्ध न होकर उसके रासायनिक संयोगपर ही विचार करता है। कविको उसके रासायनिक मिश्रणकी कोई चिन्ता नहीं, कल्पना भी नहीं, वह तो केवल उसके सौन्दर्यपर मुग्ध है और वह किसी कमनीय कामिनीके उपमालंकारमें गूंथनेकी कोमल कल्पनासे आकलित हो उठता है । जब कि वैद्यजी उसके गुणदोषोंके विवेचनमें अपने मनको केन्द्रित कर देते हैं। पर सामान्यजन उसकी रोमी-रीमी मोहक सुवाससे वासित होकर ही अपने पुष्पज्ञानकी परिसमाप्ति कर देता है। तात्पर्य यह कि वस्तुके अनन्तधर्मात्मक विराटस्वरूपका अखण्ड भावसे ज्ञानके द्वारा प्रतिभास होनेपर भी उसके विवेचक अभिप्राय व्यक्तिभेदसे अनन्त हो सकते है। फिर अपने-अपने अभिप्रायसे वस्तुविवेचन करनेवाले शब्द भी अनन्त हैं। एक वैज्ञानिक अपने दष्टिकोणको ही पूर्ण सत्य मानकर कवि या वैद्यके दष्टिकोण या अभिप्रायको वस्तुतत्त्वका अग्राहक या असत्य ठहराता है तो वह यथार्थ द्रष्टा नहीं है, क्योंकि पुष्प तो अखण्ड भावसे सभीके दर्शनका विषय हो रहा है और उस पुष्पमें अनन्त अभिप्रायों या दष्टिकोणोंसे देखे जानेकी योग्यता है पर दृष्टिकोण और तत्प्रयुक्त शब्द तो जुदे-जुदे हैं और वे आपसमें टकरा भी सकते हैं । इसी टकराहटसे दर्शनभेद उत्पन्न हआ है । तब दर्शन शब्दका क्या अर्थ फलित होता है जिसे हरएक दर्शनवादियोंने अपने मतके साथ जोड़ा और जिसके नामपर अपने अभिप्रायोंको एक दूसरेसे टकराकर उसके नामको कलंकित किया ? एक शब्द जब लोकमें प्रसिद्धि पा लेता है तो उसका लेबिल तदाभासमिथ्या वस्तुओंपर भी लोग लगाकर उसके नामसे स्वार्थ साधनेका प्रयत्न करते है । जब जनताको ठगनेके लिए खोली गई दूकानें भी 'राष्ट्रीयभण्डार' और 'जनता-भण्डार'का नाम धारण कर सकती है और गान्धीछाप शराब भी व्यवसाइयोंने बना डाली है तो दर्शनके नामपर यदि पुराने जमाने में तदाभास चल पड़े हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । सभी दार्शनिकोंने यह दावा किया है कि उनके ऋषिने दर्शन करके तत्त्वका प्रतिपादन किया है। ठीक है, किया होगा? दर्शनका एक अर्थ है-सामान्यावलोकन । इन्द्रिय और पदार्थ के सम्पर्कके बाद जो एक बार ही वस्तुके पूर्ण रूपका अखण्ड या सामान्य भावसे प्रतिभास होता है उसे शास्त्रकारोंने निर्विकल्प दर्शन माना है। इस सामान्य दर्शनके अनन्तर समस्त झगड़ोंका मल विकल्प आता है जो उस सामान्य प्रतिभासको अपनी कल्पनाके अनुसार चित्रित करता है । धर्मकीर्ति आचार्य ने प्रमाणवार्तिक ( ३६४४ ) में लिखा है कि "तस्माद् दृष्टस्य भावस्य दृष्ट एवाखिलो गुणः । भ्रान्तेनिश्चीयते नेति साधनं सम्प्रवर्तते ॥" अर्थात् दर्शनके द्वारा दृष्टपदार्थ के सभी गुण दृष्ट हो जाते हैं, उनका सामान्यावलोकन हो जाता है । पर भ्रान्तिके कारण उनका निश्चय नहीं हो पाता इसलिए साधनोंका प्रयोग करके तत्तधर्मों का निर्णय किया जाता है। तात्पर्य यह कि-दर्शन एक ही बारमें वस्तु के अखण्ड स्वरूपका अवलोकन कर लेता है और इसी अर्थ में यदि दर्शनशास्त्रके दर्शन शब्दका प्रयोग है तो मतभेदकी गुंजाइश रह सकती है, क्योंकि यह सामान्यावलोकन प्रतिनियत अर्थक्रियाका साधक नहीं होता। अर्थ क्रियाके लिए तो तत्तदंशोंके निश्चयकी आवश्यकता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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