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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ७७ संसारके समस्त पदार्थ ज्ञेय अर्थात् ज्ञानके विषय होने योग्य हैं तथा ज्ञान पर्यायमें ज्ञेयके जाननेकी योग्यता है, प्रतिबन्धक ज्ञानावरण कर्म जब हट जाता है तब वस्तुके पूर्ण स्वरूपका भान ज्ञान पर्यायके द्वारा अवश्यम्भावी है । ज्ञान पर्यायकी उत्पत्तिका जो क्रम टिप्पणीमें दिया है उसके अनुसार भी जिस-किसी वस्तुके पूर्णरूप तक ज्ञानपर्याय पहुँच सकती है यह निर्विवाद है। जब ज्ञान वस्तुके अनन्तधर्मात्मक विराट स्वरूपका यथार्थ ज्ञान कर सकता है और यह भी असम्भव नहीं है कि किसी आत्मामें ऐसी ज्ञान पर्यायका विकास हो सकता है, तब वस्तुके पूर्ण रूपके साक्षात्कार विषयकप्रश्नका समाधान हो ही जाता है । अर्थात् विशुद्ध ज्ञानमें वस्तुके विराट स्वरूपकी झाँकी आ सकती है। और ऐसा विशद्ध ज्ञान तत्त्वद्रष्टा ऋषियोंका रहा होगा। परन्तु वस्तुका जो स्वरूप ज्ञानमें झलकता है उस सबका शब्दोंसे कथन करना असम्भव है क्योंकि शब्दोंमें वह शक्ति नहीं है जो अनुभवको अपने द्वारा जता सके। सामान्यतया यह तो निश्चित है कि वस्तुका स्वरूप ज्ञान ज्ञेय तो है। जो भिन्न-भिन्न ज्ञाताओंके द्वारा जाना जा सकता है वह एक ज्ञाताके द्वारा भी निर्मल ज्ञानके द्वारा जाना जा सकता है। तात्पर्य यह कि वस्तुका अखण्ड अनन्तधर्मात्मक विराट्स्वरूप अखण्ड रूपसे ज्ञानका विषय तो बन जाता है और तत्त्वज्ञ ऋषियोंने अपने मानसज्ञान और योगिज्ञानसे उसे जाना भी होगा । परन्तु शब्दोंको सामर्थ्य इतनी अत्यल्प' है कि जाने हुए वस्तुके धर्मोमें अनन्त बहुभाग तो अनभिधेय हैं अर्थात् शब्दसे कहे ही नहीं जा सकते । जो कहे जा सकते हैं उनका अनन्तवा भाग ही प्रज्ञापनीय अर्थात् दूसरोंके लिए समझाने लायक होता है । जितना ध्रौव्यात्मक परिणमन होता रहता है और जो अनादि-अनन्तकाल तक प्रवाहित रहनेवाली है। इस धारामें कर्मबन्धन शरीर-सम्बन्ध मन, इन्द्रिय आदिके सन्निधानसे ऐसी कलई लग गई है जिसके कारण इसका ज्ञेयाकार-अर्थात् पदार्थोंके जानने रूप परिणमन होता है । इसका ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशमानुसार विकास होता है । सामान्यतः शरीर सम्पर्कके साथ ही इस चैतन्यशक्तिका कलईवाले काँचकी तरह दर्पणवत् परिणमन हो गया है। इस दर्पणवत परिणमनवाले समयमें जितने समय तक वह चैतन्य-दर्पण किसी ज्ञेयके प्रतिबिम्बको लेता है अर्थात् उसे जानता है तब तक उसकी वह साकार दशा ज्ञान कहलाती है और जितने समय उसकी निराकार दशा रहती है, वह दर्शन कही जाती है। इस परिणामी चैतन्यका सांख्यके चैतन्यसे भेद स्पष्ट है। सांख्यका चैतन्य सदा अविकारी परिणमनशन्य और कटस्थ नित्य है जब कि जैनका चैतन्य परिणमन करनेवाला परिणामी नित्य है। सांख्यके यहाँ बुद्धि या ज्ञान प्रकृतिका धर्म है जब कि जैनसम्मत ज्ञान चैतन्यकी ही पर्याय हैं। सांख्यका चैतन्य संसार दशामें भी ज्ञेयाकार परिच्छेद नहीं करता जब कि जैनका चैतन्य उपाधि दशामें ज्ञेयाकार परिणत होता है, उन्हें जानता है । स्थूल भेद तो यह है कि ज्ञान जैनके यहाँ चैतन्यकी पर्याय है जब कि सांख्यके यहाँ प्रकृति की। इस तरह ज्ञान चैतन्यकी औषाधिक पर्याय है यह संसार दशामें बराबर चाल रहती है जब दर्शन अवस्था होती है, तब ज्ञान अवस्था नहीं होती और जब ज्ञान पर्याय होती है, तब दर्शन पर्याय नहीं। ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म इन्हीं पर्यायोंको हीनाधिक रूपसे आवृत करते हैं और इनके क्षयोपशम और क्षयके अनुसार इनका अपूर्ण और पूर्ण विकास होता है । संसारावस्थामें जब ज्ञानावरणका पूर्ण क्षय हो जाता है तब चैतन्य शक्तिको साकार पर्याय ज्ञान अपने पूर्ण रूपमें विकासको प्राप्त होती है। १. “पण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतभागो सुदणिबद्धो॥" -गो० जीव० गा० ३३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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