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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३ दूसरे मतके समर्थक प्रो० ए० एन० उपाध्ये और पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री आदि हैं । इस मत के समर्थनार्थं वीरसेन द्वारा धवलाटीकामें राजवार्तिकके अवतरण लिये जाना, हरिभद्रके द्वारा 'अकलंक न्याय' शब्दका प्रयोग, सिद्धसेनगणिका सिद्धि-विनिश्चयवाला उल्लेख, जिनदासगणि महत्तर द्वारा निशीथ चूर्णि में सिद्धिविनिश्चयका दर्शन प्रभावक शास्त्ररूपसे लिखा जाना आदि प्रमाण दिये गये हैं । हमारी विचारसरणि - किसी एक आचार्यका या उसके ग्रन्थका अन्य आचार्य समकालीन होकर भी उल्लेख और समालोचन कर सकते हैं, और उत्तरकालीन होकर भी । पर इसमें हमें इस बातपर ध्यान रखना होगा कि उल्लेखादि करनेवाला आचार्य जैन है या जैनेतर । अपने सम्प्रदायमें तो जब मामूली से थोड़ा भी अच्छा व्यक्ति, जिसकी प्रवृत्ति इतरमत निरसन के द्वारा मार्गप्रभावनाकी ओर अधिक होती है, बहुत जल्दी ख्यात हो जाता है, तब असाधारण विद्वानोंकी तो बात ही क्या ? स्वसम्प्रदाय में प्रसिद्धि के लिये अधिक समयकी आवश्यकता नहीं होती । अतः स्वसम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा पूर्वकालीन तथा समकालीन आचार्योंका उल्लेख किया जाना ठीक है । इतना ही नहीं; पर स्वसम्प्रदाय में तो किसी वृद्ध आचार्य द्वारा असाधारणप्रतिभाशाली युवक आचार्यका भी उल्लेख होना सम्भव है । पर अन्य सम्प्रदायके आचार्यों द्वारा समालोचन या उल्लेख होने योग्य प्रसिद्धि के लिए कुछ समय अवश्य ही अपेक्षित होता है। क्योंकि १२-१३ सौ वर्ष पूर्वसाम्प्रदायिक वातावरण में असाधारण प्रसिद्धि के बिना अन्य सम्प्रदायके आचार्योंपर इस प्रकारकी छाप नहीं पड़ सकती, जिससे वे उल्लेख करने में तथा समालोचन या अनुसरण करने में प्रवृत्त हों । अतः सम्प्रदायान्तरके उल्लेख या समालोचन करनेवाले आचार्य से समालोच्य या उल्लेखनीय आचार्य के समय में समकालीन होनेपर भी १५-२० वर्ष जितने समयका पौर्वापर्य मानना विशेष सयुक्तिक जान पड़ता है । यद्यपि इसके अपवाद मिल सकते हैं और मिलते भी हैं; पर साधारणतया यह प्रणाली सत्यमार्गोन्मुख होती है । दूसरे समानकालीन लेखकों द्वारा लिखी गई विश्वस्त सामग्री के अभाव में ग्रन्थोंके आन्तरिकपरीक्षणको अधिक महत्त्व देना सत्य अधिक निकट पहुँचनेका प्रशस्त मार्ग है। आन्तरिक परीक्षणके सिवाय अन्य बाह्य साधनों का उपयोग तो खींचतान करके दोनों ओर किया जा सकता है, तथा लोग करते भी हैं । मैं यहाँ इसी विचार पद्धति अनुसार विचार करूँगा । अकलंक के ग्रन्थोंके आन्तरिक अवलोकनके आधारसे मेरा विचार स्पष्टरूपसे अकलंकके समय के विषयहाँ, मेरी समर्थनपद्धति डॉ० पाठककी समर्थन पद्धतिसे खास युक्तियों की आलोचना करूंगा जिनके आधारपर स्थिर है, फिर उन विचारोंको विस्तारसे लिखूंगा जिनने मेरी मति डॉ० पाठकके मतसमर्थन की ओर झुकाई । में डॉ० पाठक मतकी ओर ही अधिक झुकता है। भिन्न है । मैं पहिले विरोधी मतको उन एक दो आलोचना - ( १ ) निशीथ चूर्णि में सिद्धिविनिश्चयका दर्शनप्रभावकरूपसे उल्लेख है तो सही । यह भी ठीक है कि इसके कर्ता जिनदासगणिमहत्तर हैं, क्योंकि निशीथचूर्णिके अन्तमें दी हुई गाथासे उनका नाम स्पष्टरूपसे निकल आता है । पर अभी इस चूर्णिके रचनाकालका पूरा निश्चय नहीं है । यद्यपि नन्दीचूर्णिकी प्राचीन और विश्वसनीय प्रतिमें उसका रचनासमय शक ५९८ ( ई० ६७६ ) दिया है पर इसके कर्त्ता जिनदासगणिमहत्तर हैं यह अभी संदिग्ध है। इसके कारण ये हैं १- अभी तक परम्परागत प्रसिद्धि ही ऐसी चली आ रही है कि नन्दीणि जिनदासकी है, पर कोई १. इन दोनों मतोंके समर्थनकी सभी युक्तियोंका विस्तृत संग्रह न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावना में देखना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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