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________________ २: डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ चाचा कृष्णराजको भी अव्व शब्दसे कहता हो। यह तो एक साधारण-सा नियम है कि जिसे राजा 'अव्व' कहता हो, उसे प्रजा भी 'अव्व' शब्दसे ही कहेगी। कृष्णराज जिसका दूसरा नाम शुभतुंग था, दन्तिदुर्गके बाद राज्याधिकारी हुआ । मालम होता है कि-पुरुषोत्तम कृष्णराजके प्रथमसे ही लघु सहकारी रहे हैं, इसलिए स्वयं दन्तिदुर्ग एवं प्रजाजन इनको 'लघु अव्व' शब्दसे कहते होंगे। बादमें कृष्णराजके राज्यकालमें ये कृष्णराजके मंत्री बने होंगे। कृष्णराज अपनी परिणत अवस्थामें राज्याधिकारी हए थे । इसलिये यह माननेमें कोई आपत्ति नहीं है कि-पुरुषोत्तमकी अवस्था भी करीब-करीब उतनी ही होगी और ज्येष्ठ पुत्र अकलंक दन्तिदुर्गकी सभामें, जिनका उपनाम 'साहसतुंग' कहा जाता है, अपने हिमशीतलकी सभामें होनेवाले शास्त्रार्थकी बात कहे। पुरुषोत्तमका 'लघुअव्व' नाम इतना रूढ़ हो गया था कि अकलंक भी उनके असली नाम पुरुषोत्तमकी अपेक्षा प्रसिद्ध नाम 'लघुअव्व' अधिक पसन्द करते होंगे । यदि राजवार्तिकवाला श्लोक अकलंक या तत्समकालीन किसी अन्य आचार्यका है तो उसमें पुरुषोत्तमकी जगह 'लघुअव्व' नाम आना स्वाभाविक ही है। 'लधुअव्व' एक ताल्लुकेदार होकर भी विशिष्ट राजमान्य तो थे हो और इसीलिए वे भी नृपति कहे जाते थे। अकलंक उनके वरतनय-ज्येष्ठ पुत्र या श्रेष्ठ पुत्र थे। यद्यपि अभी तक इतिहाससे यह मालम हो सका है कि-मान्यखेट राजधानीकी प्रतिष्ठा महाराज अमोघवर्षने की थी। पर इसमें सभी ऐतिहासिक विद्वानोंका एकमत नहीं है। यह तो सम्भव है कि अमोघवर्षने इसका जीर्णोद्धार करके पुनः प्रतिष्ठा की हो, क्योंकि अमोघवर्ष के पहिले भी 'मान्यपुर, मान्यान्' आदि उल्लेख मिलते हैं। अथवा यह मान भी लिया जाय कि अमोघवर्षने ही मान्यखेटको प्रतिष्ठित किया था। तब भी इससे कथाकोशको बातें सर्वथा अप्रामाणिक नहीं कही जा सकती। इससे तो इतना ही कहा जा सकता है कि-कथाकोशकारके समयमें राष्ट्रकुटवंशीय राजाओंकी राजधानी आमतौरसे मान्यखेट प्रसिद्ध थी और इसीलिये कथाकोशकारने शुभतुंगकी राजधानी भी मान्यखेट लिख दी है । यदि पुरुषोत्तम और लघुअव्वके एक ही व्यक्ति होनेका अनुमान सत्य है तो कहना होगा कि अकलंकदेवकी जन्मभूमि मान्यखेटके ही आस पास होगी तथा पिताका असली नाम पुरुषोत्तम तथा प्रचलित नाम 'लघुअन्व' होगा। 'लघुअव्व' की जगह 'लघुहब्व' का होना तो उच्चारणकी विविधता और प्रति के लेखनवैचित्र्यका फल है। २. समय विचार अकलंकके समयके विषयमें मुख्यतया दो मत है। पहिला स्वर्गीय डॉ० के० बी० पाठकका और दूसरा प्रो० श्रीकण्ठ शास्त्री तथा पं० जुगलकिशोर मुख्तारका। डॉ० पाठक मल्लिषेणप्रशस्तिके 'राजन् साहसतुंग' श्लोकके आधारसे इन्हें राष्ट्रकूटवंशीय राजा दन्तिदुर्ग या कृष्णराज प्रथम अकलंकचरितके-"विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि । कालेऽकलंकय तिनो बौद्धर्वादो महानभूत् ॥” इस श्लोकके 'विक्रमार्कशकाब्द' शब्दका शकसंवत् अर्थ करते हैं। अतः इनके मतानुसार अकलंकदेव शकसंवत् ७०० ( ई० ७७८ ) में जीवित थे। दूसरे पक्षमें श्रीकण्ठशास्त्री तथा मुख्तारसा० 'विक्रमार्कशकाब्द' का विक्रमसंवत अर्थ करके अकलंक देवकी स्थिति विक्रम सं० ७०० ( ई० ६४३ ) में बतलाते हैं। प्रथममतका समर्थन स्व० डॉ० आर० जी० भाण्डारकर, स्व० डॉ० सतीशचन्द्र विद्याभूषण तथा पं० नाथूरामजी प्रेमी आदि विद्वानोंने किया है। इसके समर्थनार्थ हरिवंशपुराण (११३१ ) में अकलंकदेवका स्मरण, अकलंक द्वारा धर्मकीर्तिका खंडन तथा प्रभाचन्द्रके कथाकोशमें अकलंकको शुभतुंगका मन्त्रिपुत्र बतलाया जाना आदि युक्तियाँ प्रयुक्त की गई हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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