SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५० : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ चूंकि स्याद्वादको लेकर जैनदर्शनकी आलोचना पूर्ववर्ती और वर्तमान अनेक दार्शनिकोंने की है अतः लेखकने इस अध्यायमें उन सबके मतोंका उद्धरण देकर स्याद्वाद पद्धतिसे ही उनका निराकरण भी कर दिया है । आलोचना करनेवालोंकी तो लम्बी सूची है परन्तु कुछ वर्तमान जैनेतर दार्शनिकोंने स्याद्वादकी महत्ताको स्वीकार भी किया है जैसे महामहोपाध्याय डॉ० गंगानाथ झा लिखते हैं कि 'जबसे मैंने शंकराचार्य द्वाराजैन सिद्धांतका खण्डन पढ़ा है, तबसे मुझे विश्वास हुआ है कि इस सिद्धांतमें बहुत कुछ है जिसे वेदान्तके आचार्योंने नहीं समझा।' दर्शनशास्त्रके अद्वितीय विद्वान् प्रो० फणिभूषण अधिकारीने तो और भी स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि-'जैनधर्मके स्याद्वाद सिद्धांतको जितना गलत समझा गया है, उतना किसी अन्य सिद्धांतको नहीं । यहाँ तक कि शंकराचार्य भी इस दोषसे मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धांतके प्रति अन्याय किया है, यह बात अल्पज्ञ पुरुषोंके लिए क्षम्य हो सकती थी किन्तु भारतके इस महान् विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूँगा। यद्यपि मैं इस महर्षिको अतीव आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने जैन-धर्मके मल ग्रन्थोंके अध्ययनकी परवाह नहीं की।' इस प्रकार इस अध्यायमें स्याद्वादपर अनेक मतावलम्बी दार्शनिकोंके विचारोंका ऊहापोह संकलित है। स्याद्वादपर लगाए गए आक्षेपोंका जो परिहार पूर्व में हो हमारे अकलंकदेव, हरिभद्र आदि आचार्योंने किया था वह भी इसमें संक्षेपसे उद्धत है। ग्यारहवें अध्यायका शीर्षक है 'जैन दर्शन और विश्व शान्ति' इस अधिकारको लिखने में लेखकने अपने मौलिक विचार ही संजोए हैं, परन्तु वे विचार जैनदर्शनकी महानता एवं विश्व शान्तिके परिप्रेक्ष्यमें उसकी उपयोगिताको उजागर करनेवाले हैं। जैनदर्शन अनन्त आत्मवादी है। वह प्रत्येक आत्माको मलमें समान स्वभाव और समान धर्मवाला मानता है। उनमें जन्मना किसी जातिभेद या अधिकार भेदको नहीं मानता। वह अनन्त जड़पदार्थोंका भी स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है । इस दर्शनने वास्तवबहुत्वको मानकर व्यक्तिस्वातन्त्र्यकी साधार स्वीकृति दी है। वह एक द्रव्यके परिणमनपर दूसरे द्रव्यका अधिकार नहीं मानता। अतः किसी भी प्राणीके द्वारा दूसरे प्राणीका शोषण, निर्दलन या स्वायत्तीकरण ही अन्याय है। किसी चेतनका अन्य जड़ पदार्थों को अपने अधीन करने की चेष्टा करना भी अनधिकार चेष्टा है। इसी तरह किसी देश या राष्ट्रका दूसरे देश या राष्ट्रको अपने अधीन करना, उसे अपना उपनिवेश बनाना ही मूलतः अनधिकार चेष्टा है, अतएव हिंसा और अन्याय है। ( पृष्ठ ५७३ ।) ग्रन्थका अंतिम अध्याय यद्यपि एक ग्रन्थ सूचीके रूपमें है परन्तु वह सामान्य पाठकोंसे लेकर चिंतक और शोधकर्ता विद्वानों तकके लिए अत्यन्त उपयोगी है। अध्यायके अन्तमें लेखककी यह टिप्पणी भी है कि यहाँ प्राकृत संस्कृत ग्रन्थोंका ही उल्लेख किया गया है। कन्नड़ भाषामें भी अनेक ग्रन्थोंकी टीकाएँ पाई जाती है तथा कुछ जैनाचार्योंने अजैन दर्शन ग्रन्थोंकी टीकाएँ भी लिखी है वे इसमें सम्मिलित नहीं हैं । इस प्रकार डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्यकी महान् कृति 'जैनदर्शन' हमें जैनदर्शनके सिद्धांतोंको सही परिप्रेक्ष्यमें समझनेके लिए तथा अन्य मतावलम्बी दार्शनिकोंको भ्रामक मान्यताओंसे बचानेके लिए दीपशिखाका कार्य पिछले चार दशकोंसे करती आ रही है, आज भी कर रही है और आगे भी करती रहेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy