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________________ न्यायकुमुदचन्द्र और उसके सम्पादन की विशेषतायें • डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी ग्रन्थ परिचय मट्टाकलङ्कदेवकृत लघीयस्त्रय और उसकी स्वोपज्ञ विवृत्तिकी विस्तृत व्याख्याका नाम है 'न्यायकुमुदचन्द्र'। न्यायकुमुदचन्द्र एक व्याख्या ग्रन्थ होकर भी अपनी महत्ताके कारण स्वतन्त्र ग्रन्थ ही है। इसमें भारतीय दर्शनके समग्र तर्क-साहित्य एवं प्रमेय-साहित्यका आलोडन करके नवनोत प्रस्तुत किया गया है । तार्किक-शिरोमणि प्रभाचन्द्राचार्यने निष्पक्षभावसे वात्स्यायन, उद्योतकर आदि वैदिक तार्किकोंके और धर्मकीर्ति आदि बौद्ध ताकिकोंके मतोंका विवेचन उनके ही ग्रन्थोंका आधार लेकर उतनी ही निष्पक्षतासे किया है जितना कि जैनाचार्योंके मन्तव्योंका प्रस्तुतीकरण किया है। जैन सिद्धान्तोंके संदर्भमें उठने वाली सूक्ष्मसे सूक्ष्म समस्याओंको उठाकर उनका तार्किक शैलीमें विशद समाधान प्रस्तुत किया है । तर्कशास्त्र वह शास्त्र है जो अतीत, अनागत, दूरवर्ती, सूक्ष्म और व्यवहित अर्थोंका ज्ञान कराता है। तकशास्त्रका विशेषतः सम्बन्ध अनुमान प्रमाणसे है। परन्तु कभी-कभी इन्द्रियप्रत्यक्ष और आगमकी प्रमाणतामें संदेह होनेपर तकके द्वारा ही उस संदेहका निवारण किया जाता है। इस शैलीका आश्रय लेकर परवादियोंके प्रायः सभी सिद्धान्तोंकी समीक्षा न्यायकुमुदचन्द्र में की गई है। जिस प्रकार प्रभाचन्द्राचार्यकृत प्रमेयकमलमार्तण्ड-प्रमेयरूपी कमलोंका विकास करनेके लिए मार्तण्ड ( सूर्य ) है उसी प्रकार न्यायकुमुदचन्द्र भी न्यायरूपी कुमुदोंका विकास करने के लिए चन्द्रमा है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि न्यायकुमुदचन्द्र भट्टाकलङ्ककृत लघीयस्त्रय और उसकी स्वोपज्ञविवृतिकी व्याख्या है । लघीयस्त्रय प्रमाणप्रवेश, नयप्रवेश और प्रवचनप्रवेश इन तीन छोटे-छोटे प्रकरणोंका संग्रह है। प्रमाणप्रवेशमें चार परिच्छेद हैं, नयप्रवेशमें एक तथा प्रवचनप्रवेशमें दो। इस तरह लघीयस्त्रयमें कुल सात परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेदके प्रारम्भकी दो कारिकाओं पर, पञ्चम परिच्छेदकी अंतिम दो कारिकाओं पर, षष्ठ परिच्छेदकी प्रथम कारिका पर और सप्तम परिच्छेदको अंतिम दो कारिकाओं पर विवृति नहीं है, शेष पर है। विवृतिमें दिड्नाग, धर्मकीर्ति, वार्षगण्य और सिद्धसेनके ग्रन्थोंसे वाक्य या वाक्यांश लिए गए है।' जैनदर्शनमें स्वामी समन्तभद्र (ई० २री शता. ) को जैन तर्क विद्याकी नींवका प्रतिष्ठापक माना जाता है । पश्चात् सिद्धसेन दिवाकर (वि० सं०६२५ के आसपास )का जैन तर्कका अवतरण कराने वाला और आचार्य भट्टाकलङ्क ( ई०-७-८ शता०) को जैन तर्क के भव्यप्रासादको संस्थापित करनेवाला मान जाता है। अकल द्वारा संस्थापित सिद्धान्तोंका आश्रय लेकर परवर्ती जैन न्यायके ग्रन्थ लिखे गए। आचार्य विद्यानंद ( ई० ९वीं शता० ) ने इस तर्कविद्याको प्रौढ़ता प्रदान की और आचार्य प्रभाचन्द्र ( ई० ९८०-१०६५) ने जैन तर्कविद्याकी दुरूहताको बोधगम्य बनाया। प्रशस्तपादभाष्य, व्योमवती, न्यायभाष्य, न्यायवार्तिक, न्यायमंजरी, शाबरभाष्य, श्लोकवार्तिक, बृहती, प्रमाणवार्तिकालङ्कार, तत्त्वसंग्रह आदि जैनेतर प्रौढ़तर्क ग्रन्थोंका गहन अध्ययन करके आचार्य प्रभाचन्द्र ने उनकी ही शैली में प्रबलयुक्तियों ने उनके सिद्धान्तोंका परिमार्जन किया है। इस तरह जैन तर्क शास्त्रमें नवीन शैलीको जन्म देकर न्यायकुमुदचन्द्र आदि द्वारा व्योमवती जैसे प्रौढ ग्रन्थों की कमीको पूरा किया है। १. न्यायकुमुदचन्द्र प्र० भा०, प्रस्तावना, पृ० ५-७ ॥ ३-४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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