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________________ ३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : ५ अवसर्पिणीका पंचमकाल ( २१ हजार वर्ष ) छठा काल ( २१ हजार वर्ष ) फिर उत्सर्पिणीका प्रथम काल ( २१ हजार वर्ष ) द्वितीयकाल ( २१ हजार वर्ष ) अतः २१ + २१ + २१ + २१ = ८४ हजार वर्ष हुए। इतना काल बीत जानेपर उत्सर्पिणीके तृतीय कालमें २४ तीर्थंकर होंगे । अब अवसर्पिणी कालके २४ तीर्थंकर कितने कालके बाद होंगे इसपर विचार कीजिए। उत्सर्पिणीका चतुर्थकाल ( २ कोड़ाकोड़ी सागर ) पंचम काल ( ३ कोड़ाकोड़ी सागर ) छठा काल ( ४ कोड़ाकोड़ी सागर ) । फिर अवसर्पिणीका प्रथम काल ( ४ कोड़ाकोड़ी सागर ) द्वितीय काल ( ३ कोड़ाकोड़ी सागर ) तृतीय काल ( २ कोड़ाकोड़ी सागर ) इस प्रकार २+३+४+४+३+२ = १८ कोड़ा कोड़ी सागर | अतः १८ कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण काल बीत जानेपर अवसर्पिणी कालके चतुर्थकालमें २४ तीर्थंकर होंगे । उक्त विवरणसे यह सिद्ध होता है कि उत्सर्पिणी कालके तृतीय कालमें होनेवाले तीर्थंकर अल्पकाल ( केवल ८४ हजार वर्ष ) के बाद होते हैं किन्तु अवसर्पिणी कालके चतुर्थ कालमें होने वाले २४ तीर्थंकर बहु काल ( १८ कोड़ाकोड़ी सागर ) के बाद होते हैं । अर्थात् प्रत्येक उत्सर्पिणीके तृतीय कालमें होनेवाली चौबीसी ८४ हजार वर्ष बाद और प्रत्येक अवसर्पिणीके चतुर्थं कालमें होनेवाली चौबीसी १८ कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण कालके बाद होती है । यहाँ यह समझ में नहीं आ रहा है कि एक चौबीसीके बाद दूसरी चौबीसी के होने में कभी बहुत कम कालका अन्तर और कभी बहुत अधिक कालका अन्तर क्यों होता है ? इस विषय में शायद यह उत्तर दिया जा सकता है वस्तु स्थिति अथवा काल व्यवस्थाके कारण ऐसा होता है । फिर भी दो चौबीसीके बीचमें कालका कहीं बहुत कम और कहीं बहुत अधिक अन्तराल कुछ विचित्रसा लगता है । कहाँ ८४ हजार वर्षं ? और कहाँ १८ कोड़ाकोड़ी सागर ? इन दोनोंमें कितना महान् अन्तर है । सम्पादन की विशेषता तत्त्वार्थवृत्तिके सम्पादक डॉ० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य जैनदर्शन, बौद्धदर्शन तथा अन्य दर्शनोंके प्रकाण्ड विद्वान् थे । उन्होंने सर्वश्री पं० सुखलाल संघवी, पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री तथा दलसुखजी मालवणिया आदि उच्चकोटिके विद्वानोंके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होनेके कारण सम्पादन कार्य में अच्छी योग्यता प्राप्त कर थी । यही कारण है कि उन्होंने सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, तत्त्वार्थ राजवार्तिक, न्यायकुमुदचन्द्र, प्रमेयकमलमार्तण्ड, षड्दर्शनसमुच्चय आदि अनेक ग्रन्थोंका शोधपूर्ण सम्पादन किया है । यह तो सम्पादक ही जानता है कि शोधपूर्ण सम्पादन करनेमें उसे कितना परिश्रम करना पड़ता है । विद्वान् सम्पादकने तत्त्वार्थवृत्तिका सम्पादन चार कागजकी तथा एक ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियोंके आधारपर किया है । इसमें बनारस, आरा और दिल्लीसे प्राप्त प्राचीन कागजकी चार पाण्डुलिपियों ( प्रतियों ) का उपयोग किया गया है । किन्तु मूडबिद्रीसे प्राप्त ताड़पत्रीय प्रतिक्रे आधारसे ही तत्त्वार्थ वृत्तिका शुद्ध संस्करण सम्पादित हो सका है। यहाँ यह स्मरणीय है कि दिगम्बर वाङ्मयके शुद्ध सम्पादनमें ताड़पत्रीय प्रतियाँ बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई हैं । इस प्रकार उक्त पाँच प्रतियों के आधारसे तत्त्वार्थवृत्तिका सम्पादन किया गया है | मूडबिद्री जैन मठकी प्रति कन्नड़ लिपिमें है और शुद्ध है । तथा उसमें कुछ टिप्पण भी उपलब्ध हुए हैं । उन टिप्पणोंको 'ता० टि०' के साथ छपाया गया है । कुछ अर्थबोधक टिप्पण भी लिखे गये हैं । प्रस्तावना सम्पादित ग्रन्थकी प्रस्तावना सम्पादनका ही अंग होती है । यथार्थ में प्रस्तावनाके द्वारा ही सम्पादक की विद्वत्ता, विचारशैली, ग्रन्थ समीक्षा आदिका परिचय मिलता है । विद्वान् सम्पादकने ९३ पृष्ठोंकी विस्तृत प्रस्तावना लिखी है जो पठनीय और मननीय है । कुछ गम्भीर विषयोंपर अपने स्वतन्त्र, तर्कपूर्ण और निर्भीक विचार प्रस्तुत करने में भी उन्होंने कोई संकोच नहीं किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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