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________________ ४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ होता है और उस तीर्थंकर का पुत्र चक्रवर्ती होता है इन दोनोंकी उत्पत्ति तृतीय कालमें होती है। इसी कालमें ६३ शलाका पुरुष उत्पन्न होते हैं। २४ तोयंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण, और ९ प्रतिनारायण ये ६३ शलाका पुरुष कहलाते हैं। अब मुझे यहाँ उपर्युक्त कथनके आधारसे चार बातों पर विचार करना है। उनमेंसे पहली विचारणीय बात यह है कि श्रुतसागरसूरिके अनुसार अवसर्पिणी कालमें १६ कुलकर होते हैं और उत्सर्पिणी कालमें १४ कुलकर होते हैं। ऐसा क्यों होता है। दोनों कालोंमें कुलकरोंकी संख्या एक समान होना चाहिये । जैसे कि तीर्थंकरों, चक्रवतियों आदिकी संख्या सदा एक समान रहती है। प्रत्येक कालमें तीर्थंकर २४ ही होते है । कभी २३ हों और कभी २५ हों ऐसा नहीं होता है। आदिपुराण, पद्मपुराण आदि ग्रन्थोंमें भी इस अवसर्पिणी कालमें कुलकर १४ ही बतलाये गये हैं। और चौदहवें तथा अन्तिम कुलकर नाभिराय थे। यहाँ यह विचारणीय है कि अवसर्पिणो कालमें १६ कुलकरोंकी मान्यता श्रुतसागरसूरिकी अपनी है या उसका कोई आधार रहा है। द्वितीय विचारणीय बात यह है कि अवसर्पिणी कालमें प्रथम तीर्थकरकी उत्पत्ति किस कालमें होती है ? तृतीय कालमें या चतुर्थ कालमें ? श्रुतसागरसूरिके कथनसे ऐसा प्रतीत होता है कि प्रत्येक अवसर्पिणीके तृतीय कालमें प्रथम तीर्थंकरका जन्म होता है । यदि उनकी ऐसा मान्यता है तो वह गलत है। सामान्य नियम यह है कि प्रत्येक अवसर्पिणी कालके चतुर्थ कालमें २४ तीर्थकर होते हैं और प्रत्येक उत्सर्पिणी कालके तृतीय कालमें २४ तीर्थंकर होते हैं । वर्तमान अवसर्पिणी काल इसका अपवाद अवश्य है । इस अवसर्पिणी कालके ततीय कालमें प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथका जन्म अवश्य हुआ है, किन्तु सदा ऐसा नहीं होता है। इस बार ऐसा क्यों हुआ इसका विशेष कारण है और वह कारण है हुण्डावसर्पिणी काल । यह कालका एक दोष है । इस दोषके कारण कभी कुछ ऐसी बातें होती है जो सामान्यरूपसे सदा नहीं होतीं। जैसे इस अवसर्पिणी कालके तृतीय कालके अन्तमें प्रथम तीर्थंकरका जन्म होना । तीर्थंकरके पुत्रीका जन्म नहीं होता है। किन्तु काल दोषके कारण ऋषभनाथके दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी हुई। यह सब हुण्डावसर्पिणी कालका प्रभाव है। हण्डावसर्पिणी कालमें कौन-कौनसी विशेष बातें होती हैं इसका वर्णन तिलोयपण्णत्तीके चतुर्थ अध्यायमें किया गया है। किन्तु श्रुतसागरसरिने हुण्डावसर्पिणी कालका उल्लेख कहीं भी नहीं किया है। यहाँ यह स्मरणीय है कि असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालोंके बीत जाने पर एक बार हण्डावसर्पिणी काल आता है। यहाँ तीसरी विचारणीय बात यह है कि श्रुतसागरसूरिने अवसर्पिणी कालके प्रथम तीर्थकरको कुलकर माना है किन्तु उत्सर्पिणी कालके प्रथम तीर्थंकरको कुलकर नहीं माना । ऐसा क्यों माना है यह समझमें नहीं आ रहा है । अवसर्पिणी कालके प्रथम तीर्थकरको कुलकर माननेका क्या हेतु है ? कुलकर तो एक प्रकारके राजा सदृश होते हैं । कहाँ तीर्थंकरपना ? और कहाँ कुलकरपना? दोनोंमें बड़ा अन्तर है। चौथी विचारणीय बात यह है कि श्रुतसागरसूरिने अवसर्पिणी कालमें ६३ शलाका पुरुषोंके अतिरिक्त ९ नारद तथा ११ रुद्र भी माने हैं । किन्तु उत्सर्पिणी कालमें केवल ६३ शलाका पुरुष माने हैं। इस कालमें ९ नारद तथा ११ रुद्रोंको नहीं माना है। उन्होंने ऐसा अपने मनसे माना है या इस मान्यताका भी कुछ आधार रहा है। मैं यहाँ एक और बात पर विचार करना चाहता हूँ। ध्यान दें तृतीय अध्यायके पूर्वोक्त सूत्रकी वृत्तिको ध्यानपूर्वक पढ़नेसे ज्ञात होता है कि वर्तमान अवसर्पिणी कालके ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरोंके बाद आगे उत्सर्पिणी कालमें जो चौबीस तीर्थंकर होंगे वे ८४ हजार वर्ष के बाद होंगे। ८४ हजार वर्षकी गणना इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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