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________________ २२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ ___ उनकी दूसरी कहानी "बहुरूपिया" है, जो जनवरी १९५१ में प्रकाशित हुई। यह कहानी ऐतिहासिक है। इसमें कथाकारने उत्तरमध्यकालीन महान् विचारक एवं निर्भीक व्यक्तित्व वाले महाकवि पं० ब्रह्मगलालके जीवनसे सम्बन्धित कुछ घटनाओंका चित्रण किया है, जो बड़ी ही रोमांचक, मनोरंजक, प्रेरक एवं नवीन पीढ़ीके मनमें गौरवको जागृत करने वाली है। यह ध्यातव्य है कि पं० ब्रह्मगुलाल चन्द्रवाड़पट्टन राज्यान्तर्गत फीरोजाबादके निवासी थे तथा उनकी समाधि फीरोजाबाद स्थित दि० जैन कॉलेज प्रांगणमें आज भी प्रतिष्ठित एवं दर्शनीय है। पं० ब्रह्मगुलाल स्थानीय राज-दरबारके एक सम्मानित सदस्य थे । उनकी कुशल-प्रतिभा, स्वाभाविक अभिनय एवं बढ़ती हुई लोकप्रियतासे अन्य सभासद ईर्ष्यासे धधकते रहते थे और अवसर पाकर वे राजाकी दृष्टि में उन्हें गिराना चाहते थे। ब्रह्मगुलाल बहुरुपियाका स्वांग भरनेमें बड़े निपुण थे। ईर्ष्यालुओंने उसीके माध्यमसे उन्हें क्षतिग्रस्त अथवा अपमानित करनेका विचार किया। एक दिन उन्होंने राजाको उकसाया। अवसर पाकर राजाने ब्रह्मगुलालको एक दिन गाय तथा अन्य दूसरे दिन शेरका स्वांग रच कर दरबारमे प्रदर्शन करनेके अनुरोध किये । तदनुसार ब्रह्मगुलालने भी बहुत ही सुन्दर एवं स्वाभाविक स्वांग रचकर दरबारमें सभीको प्रभावित कर दिया। राजा द्वारा ब्रह्मगुलालको पुरस्कृत देखकर ईर्ष्यालुओंके मनमें विद्वेषकी द्विगुणित भावना भड़क उठती है। अतः वे अन्तिम रूपमें प्रेरित कर दिगम्बर जैनका स्वांगका आग्रह कराते हैं। ब्रह्मगुलाल उस स्वांगके प्रदर्शित करने में भी वैसा उत्साह दिखाते हैं और ॐ नमः सिद्धेभ्यः" कहकर वस्त्राभूषण त्यागकर पंचमष्टि केशलोंच कर निर्ग्रन्थ मुनिपद धारण कर लेते है । राजा अभिनयसे प्रभावित होकर उन्हें श्रेष्ठतम पुरस्कार देना चाहता है किन्तु मुनि ब्रह्मगुलाल कहते हैं कि-"राजन्, श्रमणवेशका कोई भी पुरस्कार नहीं होता, क्योंकि वह तो स्वयंम ही एक श्रेष्ठतम पुरस्कार है। यह स्वयं साधन है, और साध्य, मंगल है और मंगलका कारण है। वह स्वयं एक धर्म है। राजन, आपने मुझे मानव-जीवनके चरम पुरुषार्थकी साधनाके द्वार पर पहुँचा दिया, जो मेरे लिए बड़ा उपकारी सिद्ध हुआ है। मुनि ब्रह्मगुलालका कथन सुनकर राजा अवाक् रह गया । वह क्षमाश्रमणके चरणों पर गिर पड़ा। क्षमाश्रमण ब्रह्मगुलालने अभयमुद्रामें उसे “धर्मलाभ' कहा और वे स्वयं महामंत्रीके पुण्य कणोंको बिखेरते हुए तपोवनकी ओर चल पड़े।" कथाशिल्पको दृष्टिसे उक्त कहानी सफल एवं श्रेष्ठ है। इसी प्रकार पण्डित जीकी कहानियोंमें परावलम्बनसे हटाकर स्वावलम्बनकी सीख प्रदान करने वाली नियतिवादी सद्धालपत्त तथा जटिलमनि और कोशा-गणिका आदि भी है, जो कहानी कला तथा नैतिक मल्योंके प्रचार-प्रसारकी दष्टिसे विशेष महत्त्वपूर्ण हैं । गम्भीर निबन्धकारके रूपमें दार्शनिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं सर्वोदय विषयक चिन्तनपूर्ण निबन्धोंके लेखनके रूपमें भी पण्डितजीकी लेखनीने अपनी प्रौढ़ताका परिचय दिया है। उनके ऐसे गम्भीर निबन्धोंमेंसे अनेकान्त-दर्शनका सांस्कृतिक आधार (१९४९ ई०), सर्वोदयकी साधना ( १९४९ ई०) विश्वशान्तिके मूल आधार ( १९५० ई० ), आध्यात्मिक-संस्कृति ( १९५० ई० ) 'स्यात्ः' एक प्रहरी ( सन् १९५१ ) तथा अनेकान्तः स्वयं ही एक न्यायाधीश आदि प्रमुख हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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