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________________ २ / जीवन परिचय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : २१ इसके द्वितीय खण्डमें केवल मूलपाठके ४३८ पृष्ठ हैं, जिसमें अवशिष्ट-हेतु-लक्षणसिद्धि आदि ७ प्रस्ताव प्रस्तुत हैं। प्रस्तुत ग्रन्थके विषय-विवेचन, लुप्त-विलुप्त मूल ग्रन्थकी इतर साधनोंसे श्रमसाध्य खोज, उसका उद्धार एवं सम्पादन, उसकी विषयवस्तुका तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक गम्भीर अध्ययन आदिसे प्रभावित होकर काशी हिन्द विश्वविद्यालयके तत्कालीन संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो० (डॉ०) सूर्यकान्तने उस पर उन्हें पी-एच०डी० की उपाधि प्रदान करने हेतु अनुशंसा करनेसे महापण्डित न्यायाचार्य महेन्द्रकुमारजीका गौरव तो बढ़ा हो, काशी हिन्द विश्वविद्यालय स्वयं भी गौरवान्वित हुआ था। १०-जैन दर्शन प्रस्तुत ग्रन्थ पं० महेन्द्रकुमारजीके मौलिक चिन्तनका प्रतिफल है, जिसमें जैनदर्शनके विविध पक्षों पर उन्होंने तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक विस्तृत अध्ययन किया है। एकद्विषयक ग्रन्थोंमें सम्भवतः यह प्रथम ग्रन्थ है, जो विद्यार्थियों, शोधार्थियों तथा जिज्ञासु स्वाध्यायार्थियोंमें समान रूपसे लोकप्रिय है तथा भारतीय विश्वविद्यालयों के विविध पाठ्यक्रमों में स्वीकृत है। इसका प्रथम प्रकाशन सन् १९५५ में श्रीगणेश प्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला, काशीसे हुआ। इस ग्रन्थका मूल विषय १२ प्रकरणोंमें विभक्त तथा ६५१ पृष्ठोंमें विस्तृत है। इनमें क्रमशः पष्ठभूमि एवं सामान्यावलोकन, विषय-प्रवेश, भारतीय दर्शनको जैनदर्शनकी देन, लोक-व्यवस्था, पदार्थ-स्वरूप, षटद्रव्यविवेचन, सप्ततत्त्व-निरूपण, प्रमाणमीमांसा, नय विचार, स्याद्वाद एवं सप्तभंगो, जैनदर्शन एवं विश्वशान्ति तथा अन्तमें जैन दार्शनिक साहित्य प्रमुख हैं । प्रस्तुत ग्रन्थका प्राक्कथन डॉ० मंगलदेव शास्त्रीने लिखा है, जिन्होंने जैनदर्शनके भारतीय संस्कृतिके विकासमें महत्त्वपूर्ण योगदानकी चर्चा करते हुए उक्त ग्रन्थको राष्ट्रभाषा हिन्दीके गौरव ग्रन्थों में गणना की है। एक सिद्धहस्त कहानीकारके रूपमें पं० महेन्द्रकुमारजीका व्यक्तित्व बहुआयामी था। वह केवल जटिल न्यायग्रन्थोंके सम्पादन-समीक्षा तक ही सीमित न था बल्कि एक सिद्धहस्त कहानीकार, निबन्धकार, पत्रकार एवं कविके रू अपनी कुशल-प्रतिभाका परिचय दिया। कहानीकारका उनका रूप, उस समय प्रकाशमें आया जब उनकी सम्भवतः प्रथम कहानी "अमृतदर्शन" का अक्टूबर १९५० में प्रकाशन हुआ। यह कहानी पौराणिक है, जिसमें भरत-चक्रवर्ती मल नायकके रूपमें चित्रित हैं । कहानीकारने इसमें उस घटनाका मर्मस्पर्शी चित्रण किया है, जब भरत चक्रवर्ती एक प्रभावकारी चक्रवर्ती-सम्राट् होकर भी राज्यके सभी सुख-भोगों एवं ऐश्वर्य-विलासोंके प्रति अनासक्त थे। राज्य-वैभव और आत्मदर्शन परस्पर-विरोधी होने पर भरतके चरित्रमें वे दोनों ही विरोध-भावसे दूर थे। क्योंकि कहानीकारके ही शब्दोंमें-"वैराग्य और उदासीनता तो अन्तरको परिणति है और विभति तथा वैभव बाह्य-पदार्थ । मात्र दष्टि-परिवर्तनसे ही उनका विरोधभाव दूर हो जाता है।" उक्त कहानीमें सोमदत्त एवं यज्ञदत्त नामक दो पात्रोंके संवादोंके माध्यमसे कथाकारने उक्त सैद्धान्तिक-तत्त्वका विश्लेण किया है । पात्र-चयन, कथा-गठन, संवाद-योजना तथा मुहावरेदार भाषाके प्रयोग आदिकी दृष्टिसे यह कथा उत्कृष्ट श्रेणी को है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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