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________________ १६ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ वह त्रुटिपूर्ण था तथा उसमें संशोधनकी आवश्यकताका अनुभवकर पं० कुन्दनलालजी, पं० सुखलालजी संघवी, पं० वंशीधरजी, शोलापुर तथा पं० नाथूरामजी प्रेमोके विशेष अनुरोधपर पं० महेन्द्रकुमारजीने इसके सम्मादनका भार स्वीकार किया । पं० महेन्द्रकुमारजी के अनुसार उन्होंने प्रस्तुत संस्करण में निम्नलिखित सुधार किए – (१) सूत्रयोजना अर्थात् परीक्षामुखके सूत्रोंका, जिनपर कि उक्त ग्रन्थ में टीका लिखी गई और इसी कारण उसका अपरनाम परीक्षामुखालंकार भी है, उसमें सूत्रोंका यथास्थान विनिवेश किया गया है, जिससे प्रत्येक सूत्रकी व्याख्याका पृथक्करण हो जाय । सुविधाके लिए सूत्रांक भी उक्त ग्रन्थ के प्रत्येक पृष्ठपर दिए गये हैं । इनके अतिरिक्त अन्य विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं- ( २ ) पाठ - संशोधन ( ३ ) अवतरण- निर्देश ( ४ ) विस्तृत विषयसूची (५) पाठान्तर (६) परिशिष्ट एवं (७) परीक्षामुख - प्रस्तावना । अपनी ७८ पृष्ठों की पाण्डित्यपूर्ण विस्तृत प्रस्तावना में पण्डितजीने सूत्रकार माणिक्यनन्दि तथा टीकाकार प्रभाचन्द्रके कृतित्व एवं व्यक्तित्वपर प्रकाश डालते हुए आचार्य प्रभाचन्द्रकी जैन एवं जैनेतर आचार्योंसे तुलना करते हुए उनकी ( प्रभाचन्द्रकी ) अन्य उपलब्ध कृतियोंका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है । इसका विषयानुक्रम इतने विशद रूपमें ( ७२ पृष्ठोंमें ) तैयार किया गया है कि मूल ग्रन्थ के हिन्दीअनुवादके अभाव में भी अध्येता स्वेच्छित आवश्यक प्रकरण अथवा विषयकी खोज सरलतापूर्वक कर सकता है । मूल विषय ६ परिच्छेदों में विभक्त है । मूल पाठ ६९४ पृष्ठों में तथा अन्तमें आठ परिशिष्ट में से प्रथम परिशिष्ट में परीक्षामुख सूत्र पाठ तथा द्वितीय परिशिष्टमें प्रमेयकमलमार्त्तण्डमें उपलब्ध जैन एवं जैनेतर अवतरणोंको अकारादिक्रमसे प्रस्तुत किया गया है, जो आगामी शोध कार्योंके लिए मार्गदर्शक है । ५- तत्त्वार्थं वृत्ति आचार्य गृद्धपिच्छ द्वारा विरचित; ज्ञान-विज्ञानके लिए विश्वकोषके समान माने जानेवाले तत्त्वार्थसूत्रपर अनेक ग्रन्थोंके लेखक तथा टीकाकार आचार्य श्रुतसागरसूरि ( १६वीं सदी ) द्वारा १० अध्यायों में विभक्त उक्त ग्रन्थका सर्वप्रथम सम्पादन अत्याधुनिक दृष्टिसे अनेक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रतियोंके आधारपर पं० महेन्द्र कुमारजीने किया है, जिसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा मार्च १९४९ में किया गया । अतः पूर्वं इस ग्रन्थका संस्करण अशुद्धि पुंजके रूपमें घोषित था। प्रस्तुत नवीन संस्करण में मूलग्रन्थका भावानुवाद प्रस्तुत कर उसके गुण-दोषोंकी चर्चा विस्तृत प्रस्तावना में की गई है । पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीके अनुसार मूल टीकाकार ने पूज्यपादकृत सर्वार्थसिद्धिके आधारपर उक्त टीका लिखी है । उनके अनुसार तत्त्वार्थवृत्तिका अन्तःपरीक्षण करने पर प्रस्तुत टीका- ग्रन्थ में अनेक सिद्धान्त विरुद्ध तथ्य दृष्टिगोचर हुए हैं। पं० महेन्द्रकुमारजी स्वयं भी उनसे सहमत रहे तथा उनकी चर्चा उन्होंने अपनी प्रस्तावनामें की है । ग्रंथकी १०१ पृष्ठों की तुलनात्मक एवं समोक्षात्मक प्रस्तावनामें स्याद्वाद, सप्तभंगी, नय तत्त्व आदि प्रकरणोंका नवीन दृष्टि तथा आधुनिक शैलीसे व्याख्या प्रस्तुत को गई है, जो एक ओर तो विचारोत्तेजक तथा नवीन सामग्री प्रस्तुत करती है और दूसरी ओर सर्वगामी मिध्यात्व पर परिणामकारी प्रहार भी करती है । प्रस्तुत कृति सर्वप्रथम भगवान् महावीरके समकालीन छह अन्य तीर्थंकरोंके विचारोंकी समीक्षा की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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