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________________ २ / जीवन परिचय : व्यक्तित्व एवं कृतित्व : १५ प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलालजी संघवीने इस ग्रन्थके प्राक्कथनमें भारतीय दर्शनके अध्येताओंका ध्यान ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक दृष्टिसे अध्ययनकी ओर आकर्षित करते हुए कहा है-"न्यायकुमुदचन्द्र" के सम्पादक पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचा यंने मूलग्रन्थके नीचे एक-एक छोटे बड़े मुद्दे पर जो बहुश्रुतत्त्वपूर्ण टिप्पण दिये हैं और "प्रस्तावनामें जो अनेक सम्प्रदायोंके आचार्योंके ज्ञानमें एक दूसरेसे लेन-देनका ऐतिहासिक पर्यालोचन किया है, उन सबकी सार्थकता उपयुक्त दृष्टिसे अध्ययन करने-कराने में ही है । सारे "न्यायकूमदचन्द्र" के टिप्पण तथा "प्रस्तावका मांश अगर कार्यसाधक है तो सर्वप्रथम अध्यापकके लिए, चाहे वह जैन हो या जैनेतर, सच्चा जिज्ञासु इसमेंसे बहुत कुछ पा सकता है। अध्यापकोंकी दृष्टि एक बार साफ हुई, उनका अवलोकन-प्रदेश एक बार विस्तृत हुआ, तो फिर यह सुवास विद्यार्थियों तथा अपढ़ अनुयायियों में भी अपने-आप फैलने लगती है। इसी भावी लाभ को, निश्चित आशासे देखा जाय, तो मुझे यह कहने में लेशमात्र भी संकोच नहीं होता कि सम्पादकका टिप्पण तथा प्रस्तावना-विषयक श्रम, दार्शनिक अध्ययन-क्षेत्रमें साम्प्रदायिकताकी संकुचित मनोवृत्ति दूर करने में बहुत कारगर सिद्ध होगा।" २-अकलंकग्रंथत्रयम प्रस्तुत ग्रन्थमें ज्योतिर्धर आचार्य भट्ट अकलंक कत तीन ग्रन्थोंका एक साथ संग्रह किया गया हैलघीयस्त्रयम्, न्यायविनिश्चय एवं प्रमाणसंग्रह । जैनतर्कशास्त्रके क्षेत्रमें अकलंकको जैन सिद्धांतों तथा पदार्थोंकी प्रमाणपरिष्कृत व्याख्या और तर्कसम्मत प्रतिष्ठाको प्रदान कराने में प्रमुख स्थान प्राप्त है। मुनि जिनविजयजीके शब्दोंमें "स्वामी समन्तभद्र तथा सिद्धसेन दिवाकर, जहाँ जैन तर्क शास्त्रके क्षेत्रमें आविष्कारक कोटिमें आते हैं, वहीं भट्ट अकलंक उस क्षेत्रमें समुच्चायक एवं प्रसारक कोटिमें आते हैं।" इस प्रकार अकलंक समन्तभद्रके उपज्ञ सिद्धान्तोंके उपस्थापक, समर्थक, विवेचक एवं प्रसारक माने गये हैं । समन्तभद्रने जिन मूलभूत तात्त्विक विचारों और तर्क-संवादोंका उद्बोधन अथवा आविर्भाव किया उन्हींका अकलंकने अनेक प्रकारसे उपबृंहण, विश्लेषण, संचयन, समुपस्थापन, संकलन एवं प्रसारण किया।"" जैसा कि पूर्व में लिखा गया है, प्रस्तुत ग्रंथमें अकलंकके पूर्वोक्त तीन ग्रंथोंका संकलन एवं सम्पादन किया गया है। पण्डितजीने अपनी पाण्डित्यपूर्ण प्रस्तावनामें उपयुक्त ग्रन्थोंका मूल्यांकन करते हुए ग्रन्थकारके व्यक्तित्वपर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। ३-प्रमाणमीमांसा आचार्य हेमचन्द्र ( १३वीं सदी ) कृत उक्त प्रमाणमीमांसाका प्रकाशन सिंघी जैन सीरीज (ग्रन्थांक ९) ( अहमदाबाद, कलकत्ता ) से गन् १९३९ में हुआ । इसके मुख्य सम्पादक पं० सुखलालजी संघवी तथा उनके सहायक-सम्पादकके रूपमें पं० महेन्द्रकुमारजी तथा पं० दलसुखभाई मालवणिया थे। इसमें पण्डितजीने ग्रंथगत अवतरणोंके मल स्थानोंके खोजने तथा उनकी तुलना और भाषा-टिप्पणके लिखने में उपयोगी स्थलोंको जैन एवं जैनेतर ग्रन्थोंसे संग्रह करनेका विशेष कार्य किया। मूलपाठके साथ-साथ प्रस्तुत ग्रन्थ भूमिका, विषय-निरूपण, भाषा-टिप्पण अनुक्रमणी आदिके साथ कुल लगभग ३२४ पृष्ठोंमें विस्तृत है । ४-प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रस्तुत ग्रन्थ आचार्य माणिक्यनन्दि कृत परीक्षामुखसूत्रपर प्रभाचन्द्र कृत टीका-ग्रंथ है, जिसका प्रकाशन सन् १९४१ में निर्णयसागर प्रेस, बम्बईसे हुआ। इसके पूर्व भी ग्रन्थका प्रकाशन हुआ था, किन्तु १. प्रमाणमीमांसा, सिंघी सीरीज, प्रास्ताविक पृ० १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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