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________________ डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य बहुआयामी व्यक्तित्व एवं वैदुष्य •प्रो० (डॉ०) राजाराम जैन, आरा श्रद्धेय पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यका नाम व्यक्तिवाची नहीं बल्कि वह जैनन्याय-दर्शनका एक पर्यायवाची नाम बन गया है। १९वीं सदी के अन्तिम चरणसे ही जैन-न्यायके शास्त्रीय-विद्वानोंका अभाव खटकने लगा था। इतः पूर्व यद्यपि तद्विषयक अनेक शास्त्रीय ग्रन्थोंका प्रणयन तो हो चुका था, किन्तु ऐसी रिक्तिताका अनुभव भी किया जाने लगा था कि नवशास्त्र-लेखनकी बात तो दूर, उसके अध्येता एवं विश्लेषणकर्ता विद्वानोंका भी अभाव हो गया था। यह घोर चिन्ताका विषय तो था ही, जैन न्यायशास्त्रके प्रगति-पथ तथा उसके प्रचार-प्रसारका जबर्दस्त अवरोधक भी बन रहा था। जब मुरैना एवं बनारसमें जैन महाविद्यालयोंकी स्थापना हुई, तो पं० गोपालदासजी बरैया ( सन् १८६६-१९१७ ) प्रभृति गुरुजनोंको बड़ी चिन्ता हुई कि जैन न्यायके क्षेत्रमें कोई भी उपाधिधारी प्रकाण्ड विद्वान् तैयार नहीं हो रहे हैं । कहते हैं कि एक बार जब वेदान्तशास्त्रके विश्लेषक विद्वानोंका अभाव होने लगा, तो दक्षिण भारतकी एक संवेदनशील महिला बड़ी ही दुःखी रहने लगी। उसने एक बार मन्दिरमें प्रार्थना करते हुए वेदान्तशास्त्रके उद्धारकके शीघ्र जन्म लेनेकी कामना की। तब वहीं आकाशवाणीमें किसीने उत्तरमें उससे कहा कि-'हे माता, जहाँ तुम जैसी संवेदनशील प्रबुद्ध माता पृथिवीमण्डलपर उपस्थित हो और वेदान्तशास्त्रके उद्धारकके लिए चिन्तित होकर मन्दिरमें उसके ( उद्धारकके ) अवतरण हेतु मंगलप्रार्थना कर रही हो, तो अब तुम्हारी मंगल कामना अवश्य और शीघ्र ही पूर्ण होगी और उस उद्धारका जन्म केरलपुत्रकी पुण्यधरा पर होगा।" वह आकाशवाणी सत्य निकली । केरल में शंकराचार्यका जन्म हुआ और वेदान्तशास्त्रके प्रकाण्ड चिन्तक, लेखक, विद्वान् एवं टीकाकारके रूपमें वे जगद्विख्यात हुए। मुझे यह तो स्मरण नहीं आता कि किसी जैन माताने जैन नैयायिकके अभावकी पूर्ति हेतु किसी मन्दिरमें जाकर कोई प्रार्थना की हो। किन्तु सम्भवतः जिनवाणी-माता जैन-न्यायके ग्रन्थोंकी दुर्दशा देखकर अवश्य ही चिन्तित हुई होगी और जैन विद्याके सौभाग्यसे अगले ४ दशकोंमें चार सपूतोंने क्रमशः जन्म लिया--श्री पं० गणेशप्रसादजी वर्णी, पं० माणिकचन्द्रजी, पं. महेन्द्रकुमारजी एवं पं० दरबारीलालजी कोठिया। ये चारों प्रथम श्रेणीके न्यायाचार्य रहे और उन्होंने अपने शोधपरक उच्च कार्योंसे अपनी उपाधियोंकी सार्थकता सिद्ध की।। सन् १९१४ ई० में एक जैनेतर युवक कुण्डलपुर ( दमोह) में जैनधर्ममें दीक्षित हआ । समर्पितभावसे उसने जैनदर्शनका अध्ययन किया और न्याय-विषयके साथ वह प्रथम न्यायाचार्य बना। इसो व्यक्तित्व का नाम था स्वनामधन्य पं० गणेशप्रसाद (सन् १८७४-१९५४ ), जो सप्तम प्रतिमाधारी बनकर पं० गणेशप्रसादजी वर्णीके नामसे प्रसिद्ध हुए। तत्पश्चात् पं० माणिकचन्द्रजी दूसरे न्यायाचार्य ( सन् १८८६१९७० ई०) हए, और तीसरे क्रममें न्यायाचार्य थे हमारे पूज्यपाद पं० महेन्द्रकुमारजी। इनमेंसे वर्णीजी तो महान् व्रतधारी साधक सन्त महापुरुष बने। उन्होंने जैनधर्मका गहन अध्ययनकर आचार्य कुन्दकुन्दके समयसारका गहन अध्ययन किया और उनके सिद्धान्तोंको अपने जीवन में उतारनेका आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया । श्रद्धेय पं० माणिकचन्द्रजीने जैनन्याय शास्त्रके अत्यन्त कठिन १८ सहस्र श्लोक प्रमाण आचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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