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________________ ४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ ___ इसके कुछ समय बाद पण्डितजीको इष्ट-वियोगका वह दारुण दुःख झेलना पड़ा जो किसी भी भावुक व्यक्तिको विक्षिप्त करनेके लिये पर्याप्त होता है । पूज्य वर्णीजीने उस दशामें पण्डितजीको इन शब्दोंके द्वारा संवेदना और सान्त्वना प्रदान की श्रीयुत पं० महेन्द्रकुमारजा न्यायाचार्य, योग्य दर्शनविशुद्धि। मैंने श्री पं० गुलाबचन्द्रजी द्वारा आपके इष्ट-वियोगको जानकर कुछ खेदका अनुभव किया । इसका मूल कारण आपसे स्नेह ही है। यहाँ-संसारमें-यही होता है । आपको अब सर्वथा यही उचित है जा इस जालसे अपनेको रक्षित रखें, और स्व-परोपकारमें अपना शेष जीवन पूर्ण करें। यदि यह न हो सके तो जो होना है, वही होगा। संसारमें ज्ञानार्जन उतना कठिन नहीं, जितना उसका सदुपयोग करना कठिन है । “सदुपयोग" से तात्पर्य निवृत्ति मार्गकी प्राप्तिसे है। विशेष क्या लिखें। "x x आप सहसा कोई कार्य मत करना और न गजटोंमें कुछ छपवाना । कुछ दिन बाद जब चित्त स्थिर हो जाये तब अपनी हार्दिक भावनाको प्रगट करना। आपका शुभचिन्तक गणेश वर्णी शिक्षा-प्रसार तो बाबाजीका जीवन व्रत ही था । अपने विश्वस्त और समर्पित जनोंसे वे उसमें सहायक होनेके लिये भी कहते थे । पं० महेन्द्रकुमारजी उनके प्रति समर्पित तो थे ही, समाज पर भी उनका अच्छा प्रभाव था। जब खुरईमें गुरुकुलकी स्थापना हुई तब, वर्णीजीने पण्डितजीको एक ऐसा ही काम सौंपा था जो उनके ऊपर वर्णीजीके विश्वासका प्रतीक है। xxx-"एक बार मैं सागर जाऊँगा । खुरईमें जो गुरुकुलका उद्योग हुआ है. उत्तम है। परन्तु जो मूल द्रव्य है वह बहुत ही न्यून है। गुरहाजीको उचित तो यह था जो दो लाख रुपया देकर कुछ लाभ लेते । श्री सेठजो तो अभी बालक ही हैं, उन्होंने जो दान दिया है वह तो "न" के तुल्य है । गुरहा जी तो अब बार्धक्यका अनुभव कर रहे हैं। सच्चे रूप में कार्य करें। आजकल बीस हजारमें तो एक चटशाला भी नहीं चल सकती। जब आप खुरई जावें, हमारा उनसे यह सन्देश कह देना।" आपका शुभचिन्तक गणेश वर्णी ज्ञानका फल चारित्र ही है, अन्य कुछ नहीं, यह वर्णीजीकी अटल धारणा थी । वे सदा सबमें ज्ञानके अनुरूप अनासक्ति और संयमकी परिणति देखना चाहते थे। अधिकांश विद्वान ऐसा कर नहीं पाते इस बातको लेकर बाबाजी चिन्तित भी रहते थे और अफसोस भी जाहिर करते रहते थे। कुछ ऐसे हो मनोभाव उन्होंने अपने एक पत्रके माध्यमसे न्यायाचार्य जीपर व्यक्त किये हैं। यह उन दोनों न्यायाचार्योंकी निकटताका भी प्रतीक है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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