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________________ उन्हें वर्णीजी का परामर्श प्राप्त था विद्वानोंके प्रति पूज्य श्री गणेशप्रसादजी वर्णीकी ममता सर्व प्रसिद्ध थी। विशेषकर जिस विद्वान् में जैन विद्याओं के अनुरागके साथ चारित्रिक निष्ठा हो उसके लिये तो बाबाजीके मनमें मातृत्व ही छलकता रहता था । उसके भरण-पोषणके लिये, और उसके मानसिक पोषण के लिये वे सदा चिन्तित रहते थे । यथासम्भव उसकी सहायताका भी प्रयत्न करते रहते थे । • श्री नीरज जैन, सतना पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य एक ऐसे ही "जैन- विद्यानुरागी” तथा “चारित्र-निष्ठ” विद्वान् थे, अतः समय-समय पर उन्हें भी पूज्य वर्णीजीका सत्परामर्श और मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता था । जबजब पण्डितजी के सामने कोई कठिन समय आया, तब-तब बाबाजीने उन्हें अपनी अमृतवाणी से कभी दिशादर्शन कराया, कभी ढाढस बँधाया और कभी प्रेरणा प्रदान की । पण्डितजी भी समय-समय पर अपनी मनोदशा, या अपनी समस्या बाबाजी के सामने उसी प्रकार बेहिचक रखते थे जैसे कोई पुत्र, अपना अधिकार मानकर अपनी बात पिताके सामने रख देता है । देर्णीजी के पास चर्चा में कई बार उनके बारेमें हमें सुननेको मिलता था । उनके पास वर्णोजीके अनेक पत्र भी थे जिनसे इन स्नेह-सम्बन्धोंका सहज अनुमान होता है । सन् १९४४ में साहु शान्तिप्रसादने जिन दो-चार विद्वानोंके परामर्शसे भारतीय ज्ञानपीठको स्थापना की थी, उन विद्वानोंमें पण्डित महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यका नाम शीर्षस्थ था । इतना ही नहीं, साहुजीके अनुरोधपर पण्डितजीने बनारस विद्यालय में अपनी तेरह वर्षकी नौकरी छोड़कर भारतीय ज्ञानपीठमें अपनी नियुक्ति स्वीकार कर ली और ज्ञानपीठको साहु दम्पतिके सपनोंके अनुरूप आकार प्रदान किया । वह पण्डितजीका युवाकाल था । वर्णीजीने उन्हें ब्रह्मचर्यकी प्रेरणा दी जो उनके जीवन-निर्माण में बहुत सहायक सिद्ध हुई । वर्णीजीका वह पत्र मैं यहाँ अविकल प्रस्तुत कर रहा हूँ श्रीमान् महाशय पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, योग्य दर्शनविशुद्धि | एक व्रत हमारी सम्मति से पालन करना । इसमें आपका हित है । इन दिनोंमें ब्रह्मचयंसे रहना १ - अष्टमी चतुर्दशी । २- वर्ष में तीन बार दसलक्षण पर्व । ३ - वर्ष में तीन बार अष्टाह्निका पर्व | ४- स्त्रीके गर्भ में बालक आने पर, जब तक बालक दो वर्षका न हो जाये, ब्रह्मचर्यसे रहना । इसकी अवहेलना न करना । विशेष - पं० शिखरचन्द्र जो ईसरीमें है, योग्य है । उसे आप अपने कार्यमें बुला लो । ७५/- और मकान देनेसे वह प्रायः आ जायेगा । कुवर वदी ११, सं० २००१ Jain Education International मैं सोचता हूँ एक सदगृहस्थको अपना जीवन सार्थक बनानेके लिये यह परामर्श क्या पूरी जीवनयात्राका पर्याप्त पाथेय नहीं है ? ऐसी होती थी बाबाजीकी कृपा अपने कृपापात्र विद्वानों पर । For Private & Personal Use Only आपका शुभचिन्तक गणेश वर्णी www.jainelibrary.org
SR No.012005
Book TitleMahendrakumar Jain Shastri Nyayacharya Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya, Hiralal Shastri
PublisherMahendrakumar Jain Nyayacharya Smruti Granth Prakashan Samiti Damoh MP
Publication Year1996
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size17 MB
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