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________________ ६६४ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ पूर्व नहीं । (:) संस्कृत टीकामें 'शुद्ध' पदका शुभ लेश्यारूप अर्थ किया है। किन्तु नरकगतिमें शुभ लेश्याओंकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । जीवस्थान-चलिकामें 'विशुद्ध' पदके स्थानमें 'सर्वविशुद्ध' पद आया है । वहाँ इस पदका अर्थ 'जो जीव अधःप्रवृत्तकरण आदि तीन करण करनेके सन्मुख है' यह जीव लिया गया है । प्रकृतमें 'विशुद्ध' पदका यही अर्थ ग्रहण करना चाहिए। (३) यहाँ गाथामें अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयमें यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, ऐसा कहा गया है सो उसका आशय यह लेना चाहिए कि अनिवृत्तिकरणके अन्तिम समयके व्यतीत होनेपर अगले समयमें यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है। शेष कथन सुगम है।" इसी प्रकार पण्डितप्रवर टोडरमलजीने स्थितिबन्धापसरणके कालका मूल गाथाके अनुसार यही अर्थ किया-"बहरि स्थितिबन्धापसरण काल अर स्थितिकाण्डोत्करण काल ए दोऊ समान अन्तम हर्त मात्र हैं।" इसे समझानेके लिए पं० फलचन्द्रजी लिखते हैं-"विशेष-करण परिणामोंके कारण उत्तरोत्तर विशुद्धिमें वृद्धि होते जानेके कारण अपूर्वकरणसे लेकर जिस प्रकार एक-एक अन्तर्महर्त कालके भीतर एक-एक स्थितिकाण्डकका उत्कीरण नियमसे होने लगता है, उसी प्रकार उत्तरोत्तर स्थितिबन्धमें भी अपसरण होने लगता है । इन दोनोंका काल समान अन्तर्महर्त प्रमाण है। उसमें भी प्रथम स्थितिकाण्डकघात और प्रथम स्थितिबन्धापसरणमें जितना काल लगता है, उससे दूसरे आदि स्थितिकाण्डकघात और स्थितिबन्धापसरणोंमें उत्तरोत्तर विशेष हीन काल लगता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि स्थितिकाण्डकघात और स्थितिबन्धापसरणोंका एक साथ प्रारम्भ होता है और एक साथ समाप्ति होती है। प्रकृतमें उपयोगी विशेष व्याख्यान टीकामें किया ही है।" पं० फूलचन्द्रजीने विशेष टिप्पणोंमें जो खुलासा किया है, उससे उनके करणानुयोग विषयक विशिष्ट ज्ञान तथा जयधवलादि ग्रन्थोंका यथावसर प्रामाणिक उपयोग भलीभाँति लक्षित होता है। स्वयं पंडितजीने स्थान-स्थान पर तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । प्रस्तावनामें वे स्वयं लिखते हैं-"इस प्रकार लब्धिसारकी संस्कृत टीकामें जहाँ यह नियम किया गया है कि तिथंच और मनुष्य प्रथमोपशम सम्यक्त्वका प्रारम्भ पीतलेश्याके जघन्य अंशमें ही करता है, वहीं 'जयधवला' में 'जहण्णए तेउलेस्साए' पदका यह स्पष्टीकरण किया गया है कि तिर्यंच और मनुष्य यदि अतिमन्द विशुद्धि वाला हो तो भी उसके कम-से-कम जघन्य पीतलेश्या ही होगी। इससे नीचेकी अशुभ लेश्या नहीं होगी। तात्पर्य यह है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्वका प्रारम्भ करनेवाले तिर्यंच और मनुष्यके कृष्ण, नील और कापोतलेश्या नहीं होती।" इतना ही नहीं, स्वयं पण्डितजीने अपने सम्पादनके सम्बन्धमें 'प्राक्कथन' में स्पष्ट किया है-"मुझे सूचित किया गया था कि संस्कृत वृत्ति और सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका सहित ही इसका सम्पादन होना है। आप जहाँ भी आवश्यक समझें, मूल विषयको स्पष्ट करते जायें और श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने किस मूल सिद्धान्त ग्रन्थके आधारसे इसकी संकलना की है, उसे भी अपनी टिप्पणियों द्वारा स्पष्ट करते जायें। यह मेरी उक्त ग्रन्थके सम्पादनकी रूपरेखा है। अतः मैंने उक्त ग्रन्थके सम्पादनमें इस मर्यादाका पूरा ध्यान रखकर ही इसका सम्पादन किया है।" निश्चित ही पण्डितजीने अपनी मर्यादाका पालन कर ऐसे सुन्दर विशेष टिप्पण लिखे हैं कि उनके आधार पर एक स्वतंत्र ग्रंथ बन सकता है। कहीं-कहीं पर ये 'विशेष' एकसे अधिक पृष्ठोंके मुद्रित रूपमें हैं। जैसेकि पृ० ३२-३३, ४०, ४९-५०, ९५, ९९-१००, १३५-३६, ३७, ३८, १४०-४१, १५६-५७, १६०६१, १६३-६४, १७५-७६, २०५, २०७, २११-१२, २१८-१५, २६१, २७१-७२-७३, ३४९-५०, ३८२८३, ३८५-८६-८७, ४०४-५, ४४३.४४, ४७६-७७, इत्यादि द्रष्टव्य है । कहीं-कहीं पण्डितप्रवर टोडरमल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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