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________________ पंचम खण्ड : ६६५ जीकी टीका विशद तथा लम्बी है। विषय को अत्यन्त स्पष्टताके साथ प्रस्तुत किया गया। जहाँ-कहीं अधिक स्पष्टता आवश्यक प्रतीत हुई है अथवा संकेत मात्र मिले हैं, वहीं विशदीकरण किया गया है । उदाहरणके लिए पं० टोडरमलजी लिखते हैं-इन अठाईस गाथानिका अर्थ रूप व्याख्यान क्षपणासार विष नाहीं लिख्या । इहाँ मोकुं प्रतिभास्या तैसे लिख्या है।' पं० फूलचन्द्रजी इसपर विशेष लिखते हुए कहते हैं-'इसका चूर्णिसूत्रों और जयधवला टीका द्वारा इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है-विवक्षित समयमें प्रदेशोदय अल्प होता है। अनन्तर समयमें असंख्यातगुणा होता है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए । 'द्रव्यका संक्रम होता है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए।' ये जो करणानयोगको समझने के लिए स्थान-स्थानपर पण्डितजीने सूत्र (कुंजी) दिए हैं. वे वास्तवमें अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उसको ध्यानमें लिए बिना स्वाध्यायी शास्त्र समझ नहीं सकते हैं । यह अवश्य है कि कहीं-कहीं विस्तारके भयसे तथा एक ही स्थानपर विशद वर्णन होनेसे पण्डितजीने यह कहकर छोड़ दिया है कि इस बातोंका खुलासा अमुक ग्रन्थमें किया गया है। उनके ही शब्दोंमें 'इसके अन्तमें कार्यविशेष आदिको सूचित करने वाली चार गाथाओंमें निर्दिष्ट सभी बातोंका खुलासा 'जयधवला' पु० २१४-२२२ में किया ही है सो उसे वहाँसे जान लेना चाहिये । यहाँ मुख्यतया उपशमश्रेणिमें होनेवाले उपयोग और वेदके विषयमें विचार करना है। 'जयधवला' में उपयोगके प्रसंगसे दो उपदेशोंका निर्देश किया गया है। वास्तवमें प्रकरणके अनुसार जहाँ जितना आवश्यक है, वहाँ उतना ही स्पष्टीकरण, निर्देश तथा संकेत पण्डितजीने किया है। जिनागमके अपने अध्ययनका पूरा-पूरा उपयोग पण्डितजीने इस टीकामें किया है। अनेक स्थलोंपर जिस अर्थमें शब्दका प्रयोग हुआ है, उसका प्रामाणिक रूपसे उल्लेख किया गया है । अर्थका स्पष्टीकरण करते समय पण्डितजीने जयधवलादि मूल आगम ग्रन्थों, चणिसूत्रों, संस्कृत टीका तथा सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीकाको सभी स्थलोंपर अपने सामने रखा है। इस प्रकारका तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले बहुत विरल है । यही इस टीकाकी महान् उपलब्धि है । गाथा ४३५ का विशेष लिखते हुए पण्डितजी स्पष्ट करते हैं। उनके ही शब्दोंमें 'प्रकुतम हिन्दो टीकाकार पण्डितप्रवर टोडरमलजी सा० ने पर्याप्त प्रकाश डाल ही दिया है। यहाँ इतना बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि बन्धकी अपेक्षा तीनों वेदोंमेंसे यहाँ एक पुरुषवेदका ही बन्ध होता है, किन्तु जो जिस वेदके उदयसे क्षपक श्रेणी चढता है. मात्र उसीका उदय रहता है। इसलिये परुषवेदके उदयसे श्रेणीपर चढ़े हए जीवके पुरुषवेदकी अपेक्षा बन्ध और उदय दोनों पाये जाते हैं। हाँ, अन्य दोनों वेदोंमेंसे किसी भी वेदकी अपेक्षा श्रेणी पर चढ़े हुए जीवके पुरुषवेदका मात्र बन्ध हो पाया जाता है। इसी प्रकार यथासम्भव चारों संज्वलन कषायोंकी अपेक्षा भी विचार कर लेना चाहिए । उक्त कषायोंमेंसे किसी भी कषायके उदयसे श्रेणि-आरोहण करे, तो भी यथास्थान बन्ध चारोंका होता है। इस प्रकार इन सब व्यवस्थाओंको ध्यानमें रखकर यहाँ अन्तरकरण सम्बन्धी अन्य व्यवस्थाएँ घटित कर लेनी चाहिए। विशेष स्पष्टीकरण हिन्दी टीकामें किया ही है ।' इस प्रकार पण्डितजीने 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका के भावको स्थान-स्थानपर खोल कर स्पष्ट किया है। जहाँ-कहीं पण्डितप्रवर टोडरमलजीने संस्कृत वृत्तिके भावको अपने शब्दोंमें लिखकर स्पष्ट किया, वहीं पं० फूलचन्द्रजीने अधिक-से-अधिक स्पष्ट तथा विशद करने के लिए चूणिसूत्रों तथा जयधवलादि ग्रन्थोंके अनुसार विशेष शीर्षक देकर स्पष्टीकरण किया है। यदि शोध व अनुसन्धानकी दृष्टिसे विचार किया जाए, तो पण्डितजीने पण्डितप्रवर टोडरमलजीके कार्यको ही आगे बढ़ाया है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जो साहित्यिक कार्य उन्होंने अठारहवीं शताब्दीमें किया था, वही कार्य नई भाषा-शैली में पं० फूलचन्द्रजीने किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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