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________________ पंचम खण्ड : ६६३ लेकर आज भी यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होने वाले विद्वान् करणानुयोगका रहस्य समझने वाले अवश्य ही "सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका” से उपकृत हुए हैं। पंडितप्रवर टोडरमल जीकी इस टीकाकी यह विशेषता है कि मूल भावको सुरक्षित रख कर वह गाथाके अर्थ, भावार्थ आदिको स्पष्ट करनेवाली प्राचीन पद्धतिका अनुकरण नहीं करती, किन्तु नवीन शैली में भावोंके परतोंको सरल शब्दों में न कम और न अधिक पदोंकी रचना कर मूल विषयको व्यवस्थित क्रमसे स्पष्ट करते हुए आगे बढ़ते हैं । यही कारण है कि "लब्धिसार" की वचनिकामें जहाँ-कहीं संस्कृतवृत्तिकी छाया लक्षित होती है, वहीं कोई भी ऐसा स्थल नहीं है जहाँ अर्थ संदृष्टि या बीजगणितीय पद्धतिका अनुगमन किया गया हो । सर्वत्र अपनी बोलचालकी भाषामें भावोंको स्पष्ट किया गया है । सन् १९८० में श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगाससे पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सम्पादित लब्धिसार ( क्षपणासारगर्भित ) की पण्डितप्रवर टोडरमलजी कृत “सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका" भाषा टीका सहित प्रकाशित हुई है। इस टीकाको सर्वप्रथम देखकर मुझे यह कुतूहल हुआ कि सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीकाके उपरान्त पं० फुलचन्द्रजीके सम्पादनकी इसमें क्या विशेषता है ? क्योंकि पण्डितप्रवर टोडरमलजीकी विशेषता तो उनकी प्रस्तावना पढ़ते ही स्पष्ट हो जाती है । वे कहते हैं - " शक्तिका अविभाग अंशताका नाम अविभागप्रतिच्छेद है । बहुरि तिनके समूह करि युक्त जो एक परमाणुताका नाम वर्ग है । बहुरि समान अविभागप्रतिच्छेद युक्त जे वर्ग तिनके समूहका नाम वर्गणा है । तहाँ स्तोक अनुभाग युक्त परमाणुका नाम जघन्य वर्ग है । तिनके समूहका नाम जघन्य वर्गणा है ।" इसी प्रकार - च्या गति वाला अनादि वा सादि मिध्यादृष्टि सज्ञी पर्याप्त गर्भज मन्द कषायरूप जो विशुद्धता ताका धारक, गुण-दोष विचार रूप जो साकार ज्ञानोपयोग ता करि संयुक्त जो जीव सोई पाँचवीं करणलब्धि विषै उत्कृष्ट जो अनिवृत्तिकरण ताका अन्त समय विषै प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करें । इहाँ ऐसा जाननापण्डितप्रवर टोडरमलजी इसे विशद करते हुए कहते हैं " जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थानते छूटि उपशम सम्यक्त्व होइ ताका नाम उपशम सम्यक्त्व है । बहुरि उपशमश्रेणी चढ़ता क्षयोपशम सम्यक्त्व तैं जो उपशम सम्यक्त्व ताका नाम द्वितीयोपशम सम्यक्त्व है, तातैं मिथ्यादृष्टिका ग्रहण किया है । बहुरि सो प्रथमोशम सम्यक्त्व तिर्यंच गति विषै असंज्ञी जीव हैं तिनकैं न हो है । अर मनुष्य तियंचविषै लब्धि- अपर्याप्तक अर सम्मूर्छन है तिनकैं न हो है । बहुरि च्यारयो गति विषै संक्लेशता करि युक्त जीवकै न हो है । बहुरि अनाकार दर्शनोपयोगका धारीकै न हो हैं, जातैं तहाँ तत्त्वविचार न संभव है । बहुरि आगे तीन निद्रा उदयका अभाव कहेंगे, यातें सूता जीव के न हो है, तातें अभव्यकें न हो है। ए भी विशेषण इहां संभव हैं ॥१२॥ " सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका" के इस विवेचनका अधिक स्पष्टीकरण करनेके निमित्त सिद्धान्तशास्त्री पंडित फूलचन्द्रजी ने अनेक स्थलों पर "विशेष" तथा टिप्पणीके रूपमें हिन्दी भाषामें टीकाकी है । उक्त स्थल पर वे लिखते हैं- “विशेष—यहाँ मुख्य रूपसे तीन बातोंका स्पष्टीकरण करना है - ( १ ) जिस अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीवका संसार में रहनेका काल अधिक-से-अधिक अर्द्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण शेष रहता है, वह उक्त कालके प्रथम समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्वके योग्य अन्य सामग्री के सद्भावमें उसे ग्रहण कर सकता । उस समय उसे प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्ति नियमसे होती है, ऐसा कोई नियम नहीं है । मुक्त होनेके पूर्व इस कालके मध्यमें कभी भी वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करता है । प्रथमोपशम सम्यक्त्वके छूटनेपर सादि मिथ्यादृष्टि जीव पुनः पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके जानेपर ही उसे प्राप्त करनेके योग्य होता है, इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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