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________________ 'चतुर्थ खण्ड : ५७१ यदि द्विजकी स्त्रीकेसाथ बुरा कर्म किया हो तो लिंगच्छेद, संपत्तिका हरण अथवा प्राणांत शासन करना चाहिये परन्तु यही काम ब्राह्मणने क्षत्रिय अथवा वैश्यस्त्री के साथ किया हो तो सो और शूद्रस्त्रीके साथ किया हो तो एक हजार रुपया दंड करके उसे छोड़ देना चाहिये । भोजनके सम्बन्ध में देखिये | अमृतं ब्राह्मणस्यान्नं क्षत्रियान्नं पयः स्मृतम् । वैश्यस्य चान्नमेवान्नं शूद्रान्न ं रुधिरं स्मृतम् । लघु अत्रिस्मृति ५ अ. अर्थ — ब्राह्मणों का भोजन अमृत, क्षत्रियोंका भोजन दूध, वैश्योंका भोजन सामान्य अन्न और शूद्रोंका भोजन रुधिर है । महंतताके सम्बन्धमें देखिये । देवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनं हि देवतम् । ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीना ब्राह्मणो मम दैवतम् । भाग० अर्थ - सम्पूर्ण संसार दैवके आधीन है, दैव मंत्रोंके आधीन है और मंत्र ब्राह्मणों के आधीन है अतएव ब्राह्मण ही मेरा देवता है । इत्यादि कहाँ तक लिखा जावे | सिंधुके पाठकोंको स्वतंत्र ही विषय पर रसास्वाद करनेको मिलेगा । यहाँ पर भगवान् महावीर स्वामी के समय की परिस्थितिका दिग्दर्शन करानेके लिये नमक मिर्च न मिलाकर सरल और सीधे शब्दोंमें उन्हीं के ग्रन्थोंका आधार लेकर लिख दिया गया है । इससे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि भगवान् महावीर स्वामीके समय धर्मके नामपर क्या हो रहा था । भगवान् महावीर स्वामीको किन किन परिस्थितियोंसे झगड़ना पड़ा। यद्यपि ब्राह्मण धर्मसे टक्कर लेनेके लिये भगवान् महावीरको बौद्धोंकी थोड़ी बहुत सहायता अवश्य मिली होगी। परन्तु बौद्धोंके तात्त्विक विचार शिथिल और एकांकी होनेके कारण भगवान् महावीरको उनके विरोधमें भी खड़ा होना पड़ा। इस तरह भगवान् महावीरके सामने सामाजिक सुधार और सत्य तथा वैज्ञानिक ढंगसे धार्मिक मीमांसायें ये दो कार्य थे । Jain Education International उन्हें ब्राह्मण धर्मके विरुद्ध यह घोषणा करनी पड़ी कि समाज व्यवस्थाके लिए चार वर्ण होते हुये भी उनका सम्बन्ध गुणसे है कर्म से नहीं । समाज व्यवस्थाका भंग करनेवाले समान दण्डके भागी हैं । इसमें वर्ण भेदका कुछ भी सम्बन्ध नहीं । धर्म पालन करनेका सबको अधिकार है। तर्पण करनेसे पितर संतुष्ट नहीं होते हैं । यह ब्राह्मणोंका केवल अपनी उपजीविकाका साधन है । यज्ञमें पशुओंके होम करनेसे न तो वे पशु ही स्वर्ग जाते हैं और न करने करानेवाले । यह केवल ब्राह्मणी लीला है । अश्वमेध यज्ञमें यज्ञ करानेवालेकी स्त्रीको घोड़ाके साथ अनुचित सम्बन्ध कराना तो इस धर्मकी कालिमाको और ही स्पष्ट प्रगट कर देता है। गोरखपुर के राजाने यज्ञमें अपनी रानीको यह नीच कर्म करानेके लिए लगाया था जिससे वह विचारी उस वेदनाको सहन न कर सकने के कारण वहींपर तड़प-तड़प कर के मर गई थी । यज्ञमें घोड़ेके साथ अनुचित सम्बन्धका यजुर्वेद महीधर भाष्य के तेईसवें अध्यायमें स्पष्ट रूपसे वर्णन आया है । 'अश्वस्यातं हि शिश्नंतु पत्नीग्राह्यं प्रकीर्तितम्' सत्यार्थप्रकाश, मराठी भाषांत पृ० ४७३ । इसी प्रकार और बहुतसी रूढ़ियाँ धर्मके नामसे ब्राह्मणोंने प्रचलित कर रक्खी थीं उनके करने कराने में ही वे अपनी समस्त शक्तिका उपयोग करते थे । भगवान् महावीरसे यह सामाजिक अत्याचार सहन नहीं हुआ उन्हें स्पष्ट रूपसे इस अन्याय के विरुद्ध अपनी आत्मीक शक्तिका उपयोग करना पड़ा। लोग तो पहिलेसे ही त्रस्त थे । उन्हें योग्य ऐसे एक नेताकी आवश्यकता थी ही अतएव भगवान् महावीरके इस काममें प्रवृत्त होनेपर जनताने अति शीघ्र उनके उपदेशका अनुकरण किया। जहाँ तहाँ यज्ञ संस्थाएँ विध्वंसकी जाने लगीं । धर्मके For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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