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________________ ५७२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ । विषय में सबको समान अधिकार दिये गये शूद्रोंको भी धर्म श्रवण करके आत्मकल्याण करनेका अधिकार दिया गया । स्त्रियाँ भी पुरुषोंके समान अपनी योग्यता के अनुसार धर्मके पालन करनेकी अधिकारिणी बनाई गयीं । दण्डविधान की अतिरेकताका स्पष्ट रूपसे निषेध किया गया तथा सबके साथ समान व्यवहार करनेकी आयोजना की गई । ब्राह्मणोंके द्वारा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्तिके कृत्रिम मार्गका निषेध करके उसके स्थान में सच्चे मोक्षमार्गमें जनताको प्रोत्साहित किया गया । बुद्धदेव अपने जीवनकालमें कट्टर सुधारणाप्रिय होते हुए भी स्वर्ग और मोक्ष के विषय में वे मुग्ध थे । या तो वे स्वयं ही इस विषयका निर्णय नहीं कर सके होंगे अथवा इधर उनका ध्यान ही नहीं गया होगा । परन्तु भगवान् महावीरकी यह स्थिति नहीं थी । वे बाह्य सुधारणाके साथ आभ्यंतर सुधारणाके कट्टर पुरस्कर्ता थे इतना ही क्यों अपने कार्यकालके पहिले उन्होंने स्वयं खंडतर तपश्चर्या और मनोनिग्रहके द्वारा आत्मशुद्धि करली थी । वे पूर्णत्वावस्थाको प्राप्त होकर विकारीभावोंके परे थे । अब उनके सामने एकही कार्य था और वह यह कि इन गरीब प्राणियों का उद्धार केवल बाह्य परिस्थितिके बदलने से न होकर उनके भावों में भी परिवर्तन करनेसे होगा । उनके जीवनचरित्रके बाँच लेनेसे इन बातोंका बिल्कुल स्पष्ट खुलासा हो जाता है । उनके अनुयायी हम और आपने उनकी जयंतीका उत्सव किया ही है । यह आनन्दकी बात है । इससे यह पता लग जाता है कि उनके कार्य मान्य हैं, उनमें हमारी श्रद्धा है । परन्तु आजकी परिस्थिति हमें बाध्य करती है कि हम इससे कुछ आगे बढ़कर कार्य करें इसके लिये हमें परस्पर के विद्रोहको तो भूलना ही होगा साथ ही हममें जो अनुचित प्रवृत्तियाँ प्रवृत्त हो गई हैं उनको भी निकालकर दूर करना होगा । हमारे मन्दिर जैनमात्रोंके लिये खुले नहीं हैं ! हम उसमें दसा - वीसाका प्रश्न उपस्थित करते हैं । दण्डविधानका यह दुरुपयोग और कब तक चालू रहेगा किसे मालूम । खुशीकी बात है कि दक्षिण प्रांत में यह दोष देखने को नहीं मिलता है । यहाँपर सभी जैनीदेव दर्शन आनन्दसे कर सकते हैं । अष्ट द्रव्यसे पूजा करनेका अधिकार भी सबको है । इतना ही क्यों बहुतसे अजैन भाई भी आकर देव दर्शन करते हैं । परन्तु उन्हें किसी प्रकारकी रुकावट नहीं की जाती । बहुत से स्थानों पर कुछ भाइयोंको देवदर्शन करनेकी आज्ञा दे दी जाती है इससे यह तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि आज्ञाका न देना शास्त्र विरुद्ध है । तभी तो आज्ञा देनेवाले भाइयोंको शास्त्रीय मार्गका अनुकरण करनेके लिये बाध्य होना पड़ता है । जो पाप होता है वह विहित कोटिमें कमी भी नहीं आ सकता है, परन्तु यहाँ यह बात नहीं है अतएव इसीसे इस बातका निश्चय हो जाता है कि उत्तर प्रान्तके जैनियोंने इस अनुचित मार्गका स्वीकार कुछ ही समयसे किया है । आशा है इस दोषको उत्तर प्रांतीय भाई निकालनेका प्रयत्न करेंगे । और भी बहुतसी बातें लिखी जा सकती हैं जो धर्म न होकर धर्मके नामपर जिनका प्रचार चालू है । हम अपने भाइयोंसे प्रार्थना करते हैं कि आगे वर्ष वीर जयंती आनेतक वे उनको निकालकर विरोचित कार्योंसे वीर जयन्तीका उत्सव मनावेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012004
Book TitleFulchandra Shastri Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
PublisherSiddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi
Publication Year1985
Total Pages720
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size18 MB
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